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प्रश्न

शरीर क्या हैं?

उत्तर


जॉन नॉक्स (1510-1572 ईस्वी सन्) एक स्कॉटिश पास्टर, धर्मसुधार आन्दोलन के एक अगुवे और स्कॉटलैंड में प्रेस्बिटेरियन सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। नॉक्स को उनके समकालीन धर्मशास्त्रियों के द्वारा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रशंसा मिली है, जो परमेश्‍वर के लिए उत्साह और पवित्रशास्त्र और पवित्र जीवन के सत्य के प्रति वचनबद्ध रहे थे। तथापि, जब वे अपनी मृत्यु के निकट थे, तब परमेश्‍वर के इस सन्त ने पाप के उस स्वभाव से अपने व्यक्तिगत् संघर्ष को स्वीकार किया है, जो उसे आदम से धरोहर के रूप में प्राप्त हुआ था (रोमियों 5:12)। नॉक्स कहते हैं, "मुझे पता है कि शरीर और आत्मा के मध्य चलने वाला युद्ध कितना अधिक पीड़ादायी भारी क्रूस की तरह होता है, जब कोई भी सांसारिक सुरक्षा नहीं अपितु वर्तमान मृत्यु प्रकट होती है। मैं शरीर की कुढ़ने और कुड़कुड़ाती हुई शिकायतों को जानता हूँ...।"

नॉक्स का कथन वैसा ही उल्लेखनीय प्रतीत होता है, जैसा कि प्रेरित पौलुस का है, जिसने खुल्लम खुल्ला अपने पापी स्वभाव के साथ अपने व्यक्तिगत् संघर्ष को स्वीकार किया था: "हम जानते हैं कि व्यवस्था तो आत्मिक है, परन्तु मैं शारीरिक और पाप के हाथ बिका हुआ हूँ। और जो मैं करता हूँ, उस को नहीं जानता, क्योंकि जो मैं चाहता हूँ, वह नहीं किया करता, परन्तु जिस से मुझे घृणा आती है, वही करता हूँ। और यदि जो मैं नहीं चाहता वही करता हूँ, तो मैं मान लेता हूँ कि व्यवस्था भली है। तो ऐसी दशा में उसका करनेवाला मैं नहीं, वरन् पाप है जो मुझ में बसा हुआ है। क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती। इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूँ, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता, वही किया करता हूँ। अत: यदि मैं वही करता हूँ जिस की इच्छा नहीं करता, तो उसका करनेवाला मैं न रहा, परन्तु पाप जो मुझ में बसा हुआ है। इस प्रकार मैं यह व्यवस्था पाता हूँ कि जब भलाई करने की इच्छा करता हूँ, तो बुराई मेरे पास आती है। क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्‍वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूँ। परन्तु मुझे अपने अंगों में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है, जो मेरे अंगों में है। मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?" (रोमियों 7:14-24)।

पौलुस रोमियों के लिखे हुए अपने इस पत्र में कुछ इस तरह से लिखता है कि "उसकी देह के अंग" जिन्हें वह मेरा "शरीर" कह कर पुकारता है, जो उसके मसीही जीवन को यापन करने में कठिनाई को उत्पन्न करते हैं और उसे पाप का कैदी बना देते हैं। मार्टिन लूथर, रोमियों की पुस्तक की प्रस्तावना में, पौलुस के द्वारा "शरीर" शब्द के उपयोग पर यह कहते हुए टिप्पणी देते हैं, "आप 'शरीर' को नहीं समझ पाएँगे, इसलिए, मानो कि केवल 'शरीर' ही है, जो अशुद्धता से जुड़ा हुआ है, परन्तु सन्त पौलुस 'शरीर' को एक मनुष्य के आत्मा, प्राण, देह और तर्क और उसके सभी संकायों के लिए उपयोग करता है, क्योंकि उसमें जो कुछ भी है, वह सब कुछ शरीर की लालसा ही करती है।" लूथर की टिप्पणी से पता चलता है कि "शरीर" प्यार और इच्छाओं की तरह है, जो परमेश्‍वर के विपरीत चलता है, न केवल यौन गतिविधियों के क्षेत्र में, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में विपरीत चलता है।

शब्द "शरीर" के ऊपर एक ठोस समझ की प्राप्ति के लिए पवित्रशास्त्र में इसके किए हुए उपयोग और परिभाषा की जाँच किए जाने की आवश्यकता है कि कैसे यह अविश्‍वासियों और विश्‍वासियों दोनों के जीवन में प्रगट होता है, कैसे परिणामों को उत्पन्न करता है और कैसे अन्त में इसके ऊपर जय प्राप्त की जा सकती है।

"शरीर" की परिभाषा
नए नियम में "माँस" के लिए उपयोग हुआ यूनानी शब्द सारक्स है, यह एक शब्द है, जो प्रायः पवित्रशास्त्र में भौतिक शरीर को सन्दर्भित करता है। यद्यपि, यूनानी-अंग्रेजी शब्द-संग्रह और अन्य आरम्भिक मसीही साहित्य में इस शब्द का वर्णन इस तरह से किया गया है: "भौतिक शरीर के रूप में कार्य करने वाली एक इकाई; विशेष रूप से पौलुस के विचार में, शरीर के सभी अंगों को शरीर के रूप में जाना जाता है, जिसके ऊपर पाप का प्रभुत्व इस स्तर तक है कि जहाँ कहीं भी शरीर होता है, वहाँ पर सभी तरह के पाप अस्तित्व में होते हैं, और कोई भी भली बात जीवित नहीं रह सकती है।"

बाइबल स्पष्ट करती है कि मनुष्य का आरम्भ इस तरह से नहीं हुआ था। उत्पत्ति की पुस्तक कहती है कि मानव जाति मूल रूप से अच्छी और सिद्ध रूप से सृजी गई थी: "फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएँ'... परमेश्‍वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्‍वर ने उसको उत्पन्न किया; नर और नारी करके उसने मनुष्यों की सृष्टि की" (उत्पत्ति 1:26-27)। क्योंकि परमेश्‍वर सिद्ध है, और क्योंकि एक प्रभाव सदैव अपने सार में इसके कारण का प्रतिनिधित्व करता है [अर्थात्, एक पूर्ण भला परमेश्‍वर ही केवल भली वस्तुओं की रचना कर सकता है, या जैसे यीशु ने कहा था, "अच्छा पेड़ बुरा फल नहीं ला सकता है" (मत्ती 7:18)], दोनों आदम और हव्वा अच्छे और बिना पाप के ही सृजे गए थे। परन्तु जब आदम और हव्वा ने पाप किया, तब उनका स्वभाव भ्रष्ट हो गया, और उनका स्वभाव उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों में स्थानान्तरित हो गया : "जब आदम एक सौ तीस वर्ष का हुआ, तब उसके द्वारा उसकी समानता में उस ही के स्वरूप के अनुसार एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके उसका नाम शेत रखा" (उत्पत्ति 5:3, अक्षरों को प्रभावित किया गया है)।

पाप के स्वभाव के सत्य के प्रति पवित्र शास्त्र में कई स्थानों में शिक्षा दी गई है, जैसे कि दाऊद की घोषणा में, "देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा" (भजन संहिता 51:5)। दाऊद के कहने का अर्थ यह नहीं है कि वह एक व्यभिचारी सम्बन्ध के कारण उत्पन्न हुआ था, परन्तु उसका अर्थ यह था कि उसके अभिभावकों ने उसे पापी स्वभाव धरोहर के रूप में दिया था। धर्मविज्ञान में, इसे कई बार मानवीय स्वभाव के प्रति "ट्रैड्यूशियन" (लैटिन शब्द से लिया गया शब्द जिसका अर्थ "शाखा से" है) दृष्टिकोण कहा जाता है। ट्रैड्यूशियन दृष्टिकोण के अनुसार एक व्यक्ति के प्राण उसके अपने माता-पिता के द्वारा से सृजे जाते हैं, साथ ही इस प्रक्रिया में एक बच्चा उनसे उनके पतित स्वभाव को भी प्राप्त करता है।

मानवीय स्वभाव के ऊपर बाइबल का दृष्टिकोण यूनानी दर्शन से भिन्न है, जिसमें पवित्रशास्त्र कहता है कि मनुष्य का शारीरिक और आत्मिक स्वभाव मूल से रूप से अच्छा था। इसके विपरीत, प्लेटो जैसे दार्शनिकों ने मनुष्य में द्वैतवाद या द्वंद्वयुद्ध देखा। इस तरह की सोच ने अन्ततः एक ऐसे सिद्धान्त को प्रस्तुत किया कि शरीर (भौतिक) बुरा था, परन्तु एक व्यक्ति की आत्मा अच्छी थी। इस तरह की शिक्षा ने गूढ़ज्ञानवादियों जैसे समूहों को प्रभावित किया था, जो यह मानते थे कि भौतिक संसार को गलती से एक अर्ध-देव के द्वारा निर्मित किया गया था, जिसे "डेमिअरर्ज" या सृष्टि निर्माण में सहायक देवता कहा जाता है। गूढ़ज्ञानवादियों ने मसीह के देहधारण के धर्मसिद्धान्त का विरोध इसलिए किया क्योंकि वे मानते थे कि परमेश्‍वर कभी भी देह का रूप धारण नहीं कर सकता है, क्योंकि यह शरीर बुरा था। प्रेरित यूहन्ना ने उसके दिनों में इस तरह की शिक्षा के एक प्रकार का सामना किया था और इसके विरूद्ध चेतावनी दी थी: "हे प्रियो, हर एक आत्मा की प्रतीति न करो: वरन् आत्माओं को परखो कि वे परमेश्‍वर की ओर से हैं कि नहीं; क्योंकि बहुत से झूठे भविष्यद्वक्ता जगत में निकल खड़े हुए हैं। परमेश्‍वर का आत्मा तुम इसी रीति से पहचान सकते हो : जो कोई आत्मा मान लेती है, कि यीशु मसीह शरीर में होकर आया है वह परमेश्‍वर की ओर से है। और जो कोई आत्मा यीशु को नहीं मानती, वह परमेश्‍वर की ओर से नहीं; और वही तो मसीह के विरोधी की आत्मा है; जिसकी चर्चा तुम सुन चुके हो कि वह आनेवाला है, और अब भी जगत में है। हे बालको, तुम परमेश्‍वर के हो, और तुम ने उन पर जय पाई है; क्योंकि जो तुम में है वह उस से जो संसार में है, बड़ा है" (1 यूहन्ना 4:1-3)।

इसके अतिरिक्त, गूढ़ज्ञानवादियों ने यह शिक्षा दी कि यह बात कोई अर्थ ही नहीं रखती कि एक व्यक्ति ने उसके शरीर के द्वारा क्या किया है, क्योंकि यह आत्मा ही है, जो अर्थपूर्ण है। इस प्लेटोवादी द्वैतवाद का पहली शताब्दी में उसी तरह का प्रभाव पड़ा था, जैसा आज भी पड़ता है — यह या तो वैराग्य की ओर या फिर अनैतिकता की ओर ले चलता है, और इन दोनों की ही बाइबल की निन्दा की गई है (कुलुस्सियों 2:23; यहूदा 4)।

इस तरह, यूनानी विचारधारा के विपरीत, बाइबल कहती है कि मनुष्य का स्वभाव, दोनों ही शारीरिक और आत्मिक रूप से अच्छा है, तथापि, दोनों पर ही पाप के कारण प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। पाप के अन्तिम परिणाम एक ऐसे स्वभाव में निकला है, जिसे अक्सर पवित्रशास्त्र में "शरीर" कहा जाता है — यह ऐसा कुछ है, जो परमेश्‍वर का विरोध करता है और पाप से पूर्ण सन्तुष्टि को प्राप्त करने का प्रयास करता है। पास्टर मार्क बुबेक शरीर को इस तरह से परिभाषित करते हैं : "शरीर असफलता की एक अन्तर्निहित व्यवस्था के साथ सृजा हुआ है, जो एक स्वाभाविक व्यक्ति को परमेश्‍वर को प्रसन्न करने या उसकी सेवा करने के प्रति असम्भव बना देता है। यह मनुष्य के पतित होने के कारण धरोहर के रूप में मिली हुई एक ऐसी बाध्यकारी आन्तरिक शक्ति है, जो परमेश्‍वर और उसकी धार्मिकता के विरुद्ध सामान्य और विशेष विद्रोह में व्यक्त होती है। शरीर का कभी भी सुधार या इसे उन्नत नहीं किया जा सकता है। शरीर की व्यवस्था से बचाव की एकमात्र आशा यह है, प्रभु यीशु मसीह में एक नया जीवन है।"

शरीर की अभिव्यक्ति और इसके साथ होने वाला संघर्ष
कैसे शरीर स्वयं को मनुष्य में प्रकट करता है? बाइबल इस प्रश्‍न का उत्तर इस तरह से देती है : "शरीर के काम तो प्रगट हैं, अर्थात् व्यभिचार, गन्दे काम, लुचपन, मूर्त्तिपूजा, टोना, बैर, झगड़ा, ईर्ष्या, क्रोध, विरोध, फूट, विधर्म, डाह, मलवालापन, लीलाक्रीड़ा, और इनके ऐसे और-और काम हैं, इनके विषय में मैं तुम को पहले से कह देता हूँ जैसा पहले कह भी चुका हूँ, कि ऐसे ऐसे काम करनेवाले परमेश्‍वर के राज्य के वारिस न होंगे" (गलातियों 5:19-21)।

इस ससार में शरीर के द्वारा होने वाले कामों के उदाहरण स्पष्ट हैं। एक उदाहरण के रूप में अमेरिका में अश्लील सामग्री के प्रभाव पर अभी हाल के एक सर्वेक्षण से लिए गए कुछ दु:खद तथ्यों पर विचार करें। अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में प्रत्येक सैकण्ड :

• $ 3,075.64 अश्लील सामग्री पर धन खर्च होता है

• 28,258 इंटरनेट उपयोगकर्ता अश्लील सामग्री को देख रहे हैं

• 372 इंटरनेट उपयोगकर्ता खोज इंजनों के द्वारा वयस्क सामग्री सम्बन्धी शब्दों को टाइप कर रहे हैं

और प्रत्येक 39 मिनटों में, संयुक्त राज्य अमेरिका में एक नया अश्लील वीडियो बनाया जा रहा है। इस तरह के आंकड़े भविष्यद्वक्ता यिर्मयाह के कथन को देखने पर जोर देते हैं, जिसने ऐसे विलाप किया कि "मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देनेवाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है, उसका भेद कौन समझ सकता है?" (यिर्मयाह 17: 9)।

शरीर के परिणाम
बाइबल कहती है कि शरीर में जीवन व्यतीत करने से कई तरह के दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम उत्पन्न होते हैं। सबसे पहले, पवित्रशास्त्र कहता है कि जो लोग शरीर के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं, और जो अपने पाप पूर्ण व्यवहार में किसी तरह के कोई परिवर्तन की इच्छा नहीं रखते या पश्चाताप नहीं चाहते हैं, वे इस और अगले दोनों जीवनों में परमेश्‍वर से पृथकता का अनुभव करेंगे:
• "अत: जिन बातों से अब तुम लज्जित होते हो, उनसे [पाप से भरे हुए कार्यों से] उस समय तुम क्या फल पाते थे? क्योंकि उनका अन्त तो मृत्यु है" (रोमियों 6:21)

• "क्योंकि यदि तुम शरीर के अनुसार दिन काटोगे तो मरोगे, यदि आत्मा से देह की क्रियाओं को मारोगे तो जीवित रहोगे" (रोमियों 8:13)

• "धोखा न खाओ, परमेश्‍वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा। क्योंकि जो अपने शरीर के लिये बोता है, वह शरीर के द्वारा विनाश की कटनी काटेगा; और जो आत्मा के लिये बोता है, वह आत्मा के द्वारा अनन्त जीवन की कटनी काटेगा" (गलातियों 6:7-8)

इसके अतिरिक्त, एक व्यक्ति साथ ही स्वयं के पापी स्वभाव का दास बन जाता है : "क्या तुम नहीं जानते कि जिस की आज्ञा मानने के लिये तुम अपने आप को दासों के समान सौंप देते हो उसी के दास हो : चाहे पाप के, जिसका अन्त मृत्यु है, चाहे आज्ञाकारिता के, जिसका अन्त धार्मिकता है?" (रोमियों 6:16)। ये दासत्व सदैव के लिए एक विनाशकारी जीवन शैली और बिगड़ती रहने वाली जीवन की ओर जाता है। जैसा कि भविष्यद्वक्ता होशे ने कहा है, "वे वायु बोते हैं, और वे बवण्डर लवेंगे" (होशे 8:7)।

इस विषय का सत्य यह है कि शरीर की आज्ञा पालन करने से सदैव ही परमेश्‍वर की नैतिक व्यवस्था के टूटने के परिणाम मिलते हैं। तथापि, अधिक वास्तविक अर्थ में, कोई भी व्यक्ति ईश्‍वर की नैतिक व्यवस्था को कभी नहीं तोड़ सकता है, यद्यपि, वह निश्चित रूप से इसकी अवज्ञा कर सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति एक छत पर चढ़ सकता है, अपनी गर्दन के चारों ओर एक कपड़े को बाँध सकता है, और गुरुत्वाकर्षण के नियम को तोड़ने की आशा में छत पर से छलांग लगा सकता है। यद्यपि, वह शीघ्रता से सीख लेगा कि वह उड़ नहीं सकता है; वह गुरुत्वाकर्षण के नियम को नहीं तोड़ सकता है, और अन्त में वह केवल एक ही बात स्वयं को ही तोड़ देता है, जबकि इस प्रक्रिया में वह गुरुत्वाकर्षण के नियम को प्रमाणित कर देता है। ऐसा ही नैतिक कार्यों के बारे में सत्य है: एक व्यक्ति शारीरिक जीवन के माध्यम से परमेश्‍वर की नैतिक व्यवस्था का उल्लंघन कर सकता है, तथापि, वह स्वयं अपने व्यवहार के माध्यम से किसी तरह से स्वयं को तोड़कर केवल ईश्‍वर की नैतिक व्यवस्था को ही प्रमाणित करेगा।

शरीर पर जय प्राप्त करना
बाइबल शरीर पर जय प्राप्त करने और परमेश्‍वर के साथ अपने सम्बन्ध को पुनर्स्थापित करने के लिए एक तीन चरणों की प्रक्रिया को प्रदान करती है। पहला चरण ईमानदारी से भरा हुआ जीवन है, जिसमें एक व्यक्ति परमेश्‍वर के सामने अपने पाप से भरे हुए व्यवहार को स्वीकार करता है। इसमें जो कुछ बाइबल मानवीय अभिभावकों के द्वारा उत्पन्न हुए प्रत्येक व्यक्ति के लिए कहती है, उसके साथ सहमत होना सम्मिलित है : अर्थात् लोग पापी हैं और इस संसार में परमेश्‍वर के साथ एक टूटे हुए सम्बन्ध को लेकर प्रवेश करते हैं, जिसने उन्हें सृजा है:

• "हे याह, यदि तू अधर्म के कामों का लेखा ले, तो हे प्रभु, कौन खड़ा रह सकेगा?" (भजन संहिता 130:3)

• "यदि हम कहें कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने को धोखा देते हैं, और हम में सत्य नहीं...यदि हम कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है" (1 यूहन्ना 1:8, 10)।

अगला चरण आत्मा में जीवन व्यतीत करना है, जिसमें परमेश्‍वर से उद्धार के लिए पुकारना और उसके पवित्र आत्मा को प्राप्त करना है, जो एक व्यक्ति को परमेश्‍वर के सामने सही जीवन व्यतीत करने में और शरीर की इच्छाओं का पालन नहीं करने के लिए सशक्त करता है। यह परिवर्तन और नए जीवन में चलना पवित्रशास्त्र के कई स्थानों में वर्णित किया गया है:

• "मैं मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया गया हूँ, अब मैं जीवित न रहा, पर मसीह मुझ में जीवित है; और मैं शरीर में अब जो जीवित हूँ तो केवल उस विश्‍वास से जीवित हूँ जो परमेश्‍वर के पुत्र पर है, जिस ने मुझ से प्रेम किया और मेरे लिये अपने आप को दे दिया।" (गलातियों 2:20)

• "ऐसे ही तुम भी अपने आप को पाप के लिये तो मरा, परन्तु परमेश्‍वर के लिये मसीह यीशु में जीवित समझो।" (रोमियों 6:11)

• "पर मैं कहता हूँ, आत्मा के अनुसार चलो तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरी न करोगे।" (गलातियों 5:16)

• "और तुम में से जितनों ने मसीह में बपतिस्मा लिया है, उन्होंने मसीह को पहिन लिया है।" (गलातियों 3:27)

• "वरन् प्रभु यीशु मसीह को पहिन लो, और शरीर की अभिलाषाओं को पूरा करने का उपाय न करो।" (रोमियों 13:14)

• "दाखरस से मतवाले न बनो, क्योंकि इससे लुचपन होता है, पर आत्मा से परिपूर्ण होते जाओ" (इफिसियों 5:18)

• "मैंने तेरे वचन को अपने हृदय में रख छोड़ा है, कि तेरे विरूद्ध पाप न करूँ।" (भजन संहिता 119:11)

अन्तिम चरण मृत्यु के जीवन को व्यतीत करना है, जहाँ पर शरीर को अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भूख से पीड़ित होता है, ताकि यह अन्ततः मर जाए। यद्यपि, एक व्यक्ति ईश्‍वर के आत्मा के माध्यम से नए जन्म को प्राप्त करता है, तथापि, उसे समझना चाहिए कि वह अभी भी अपनी इच्छाओं के साथ अपने पुराने स्वभाव के अस्तित्व में है, जिसका संघर्ष नए स्वभाव और आत्मा की ओर से आने वाली इच्छाओं के साथ चल रहा है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से, मसीही विश्‍वासी उद्देश्य सहित पुराने, शारीरिक स्वभाव को पोषित करने से बचता है और इसकी अपेक्षा वह नए व्यवहारों को अभ्यास में लाता है, जो कि आत्मा के द्वारा चलित होते हैं:

• "पर हे परमेश्‍वर के जन, तू इन बातों से भाग [पाप से भरे हुए कार्यों से], और धर्म, भक्ति, विश्‍वास, प्रेम, धीरज और नम्रता का पीछा कर" (1 तीमुथियुस 6:11)

• "जवानी की अभिलाषाओं से भाग" (2 तीमुथियुस 2:22)

• "परन्तु मैं अपनी देह को मारता कूटता और वश में लाता हूँ, ऐसा न हो कि औरों को प्रचार करके मैं आप ही किसी रीति से निकम्मा ठहरूँ।" (1 कुरिन्थियों 9:27)

• "इसलिये अपने उन अंगों को मार डालो जो पृथ्वी पर हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्कामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्तिपूजा के बराबर है।" (कुलिस्सियों 3:5)

• "और जो मसीह यीशु के हैं, उन्होंने शरीर को उसकी लालसाओं और अभिलाषाओं समेत क्रूस पर चढ़ा दिया है।" (गलातियों 5:24)

• "हम जानते हैं कि हमारा पुराना मनुष्यत्व उसके साथ क्रूस पर चढ़ाया गया ताकि पाप का शरीर व्यर्थ हो जाए, और हम आगे को पाप के दासत्व में न रहें;" (रोमियों 6:6)

• "पर तुम ने मसीह की ऐसी शिक्षा नहीं पाई। वरन् तुम ने सचमुच उसी की सुनी और जैसा यीशु में सत्य है, उसी में सिखाए भी गए कि तुम पिछले चालचलन के पुराने मनुष्यत्व को जो भरमानेवाली अभिलाषाओं के अनुसार भ्रष्ट होता जाता है, उतार डालो। और अपने मन के आत्मिक स्वभाव में नये बनते जाओ। और नये मनुष्यत्व को पहिन लो जो परमेश्‍वर के अनुसार सत्य की धार्मिकता और पवित्रता में सृजा गया है।" (इफिसियों 4:20-24)

सारांश
प्रसिद्ध प्रचारक और भजन लेखक जॉन और चार्ल्स वैस्ली की मां सुसन्ना वैस्ली ने पाप और शरीर का वर्णन कुछ इस तरह से किया है: "कोई भी ऐसी बात जो आपके तर्क को कमजोर करता है, आपके अन्त:करण अर्थात् विवेक की कोमलता को हानि पहुँचाता है, परमेश्‍वर के प्रति आपके भाव को धुँधला कर देता है, या आपको आत्मिक बातों की समझ का स्वाद दूर कर देता है, संक्षेप में — यदि कोई भी बात जो आत्मा से अधिक आपके शरीर के ऊपर सामर्थ्य और अधिकार में वृद्धि कर देता है, तब यह आपके लिए पाप बन जाता है, चाहे यह स्वयं में कितना ही अधिक अच्छा क्यों न हो।" मसीही जीवन के लक्ष्यों में से एक आत्मा का शरीर के ऊपर जय पाना और परिवर्तित जीवन का होना है, जो परमेश्‍वर के सामने धार्मिकता से भरे हुए जीवन में प्रगट होता है।

यद्यपि, यह संघर्ष वास्तविक होगा (जिसे बाइबल स्पष्ट कर देती है), तथापि, मसीही विश्‍वासी को परमेश्‍वर की ओर से आश्‍वस्त किया गया है कि वह अन्तत: शरीर के ऊपर जय प्राप्ति की ओर ले ही जाएगा। "मुझे उस बात का भरोसा है कि जिसने तुम में अच्छा काम आरम्भ किया है, वही उसे यीशु मसीह के दिन तक पूरा करेगा" (फिलिप्पियों 1:6)।

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