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मत्ती का सुसमाचार

लेखक : यह सुसमाचार मत्ती के सुसमाचार के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इसे इसी नाम के प्रेरित के द्वारा लिखा गया था। इस पुस्तक की लेखन शैली ठीक वैसी ही है, जैसी कि एक ऐसे व्यक्ति की होनी चाहिए जो चुँगी लेने का कार्य करता रहा हो। मत्ती में लेखा-जोखा रखने के उत्साह को पाया जाता है (18:23-24; 25:14-15)। यह पुस्तक बहुत अधिक व्यवस्थित और संक्षिप्त है। कालक्रमानुसार लिखने की अपेक्षा, मत्ती अपने सुसमाचार को छ: चर्चाओं में व्यवस्थित करता है।

लेखन तिथि : यहेजकेल की पुस्तक के 583 और 565 ईसा पूर्व में किसी समय यहूदियों को बेबीलोन की बन्धुवाई के समय लिखे जाने की सम्भावना पाई जाती है।

एक चुँगी लेने वाले के रूप में, मत्ती के पास ऐसे सभी गुण पाए जाते हैं, जिसके कारण उसका लेखनकार्य मसीही विश्‍वासियों में बहुत अधिक रोमांच को उत्पन्न कर देता है। चुँगी लेने वालों से आशुलिपि में लिखने में सक्षम होने की अपेक्षा की जाती है, जिससे आवश्यक अर्थ यह निकलता है, कि मत्ती एक व्यक्ति के द्वारा बोलते हुए उसके मुँह से निकलने वाले शब्दों को अक्षरशः लिपिबद्ध कर सकता था। इस योग्यता का अर्थ यह है, कि मत्ती के वचन न केवल पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित ही हैं, अपितु साथ ही इन्हें मसीह के कुछ सन्देशों की वास्तविक पाण्डुलिपि को प्रस्तुत करना चाहिए। उदाहरण के लिए, पहाड़ी उपदेश, जैसा कि अध्याय 5-7 में लिपिबद्ध किया गया है, इस महान् सन्देश का अवश्य ही लगभग अक्षरशः सिद्ध रूप में लिपिबद्धिकरण है।

लेखन का उद्देश्य : एक प्रेरित होने के नाते, मत्ती ने इस पुस्तक को कलीसिया के आरम्भिक युग में, कदाचित् लगभग 50 ईस्वी सन् के आसपास लिखा था। यह वह समय था, जब बहुत से मसीही विश्‍वासी यहूदियों में से मसीही विश्‍वास में आए थे, इस लिए यह बात समझने योग्य है, कि क्यों मत्ती अपने ध्यान को इस सुसमाचार के लिए यहूदी दृष्टिकोण में लगाता है।

लेखन का उद्देश्य : मत्ती यहूदियों को यह प्रमाणित करने की इच्छा रखता है, कि यीशु मसीह ही प्रतिज्ञा किया हुआ मसीह है। किसी भी अन्य सुसमाचार की अपेक्षा, मत्ती सबसे अधिक पुराने नियम को यह दिखाने के लिए उद्धृत करता है, कि कैसे यीशु ने यहूदी पवित्रशास्त्र के वचनों को पूर्ण किया है। मत्ती विस्तार सहित दाऊद से लेकर यीशु की वंशावली को प्रस्तुत करता है और भाषा के ऐसे कई रूपों को उपयोग करता है, जो कि यहूदियों के अनुरूप हो। उसके लोगों के लिए मत्ती का प्रेम और चिन्ता सुसमाचार की कहानी को अति सतर्कता के द्वारा बताने के द्वारा स्पष्ट हो जाती है।

कुँजी वचन : मत्ती 5:17: "यह न समझो, कि मैं व्यवस्था या भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों को लोप करने आया हूँ। लोप करने नहीं परन्तु पूरा करने आया हूँ।"

मत्ती 5:43-44: "तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था; 'अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर।' परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ : अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सतानेवालों के लिये प्रार्थना करो।

मत्ती 6:9-13: "अत: तुम इस रीति से प्रार्थना किया करो: 'हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में हैं; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए; तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो। हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे। और जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर। और हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा; क्योंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही है।" आमीन।

मत्ती 16:26: "यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले में क्या देगा?"

मत्ती 22:37-40: "उसने उससे कहा, 'तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।' ये ही दो आज्ञाएँ सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार है।"

मत्ती 27:31: "जब वे उसका ठट्ठा कर चुके, तो वह बागा उस पर से उतारकर फिर उसी के कपड़े उसे पहिनाए, और क्रूस पर चढ़ाने के लिये ले चले।"

मत्ती 28:5-6: "स्वर्गदूत ने स्त्रियों से कहा, 'तुम मत डरो' : मै जानता हूँ कि तुम यीशु को जो क्रुस पर चढ़ाया गया था ढूँढ़ती हो। वह यहाँ नहीं है, परन्तु अपने वचन के अनुसार जी उठा है; आओ, यह स्थान देखो, जहाँ प्रभु पड़ा था।"

मत्ती 28:19-20: "इसलिये तुम जाकर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूँ।"

संक्षिप्त सार : मत्ती पहले दो अध्यायों में मसीह की वंशावली, जन्म और आरम्भिक जीवन की चर्चा करता है। वहाँ से आगे, यह पुस्तक यीशु की सेवकाई की चर्चा करती है। मसीह की शिक्षाओं का विवरण "उपदेशों" के चारों ओर निर्मित किए गए हैं, जैसे कि अध्याय 5 से लेकर 7 तक पहाड़ी उपदेश का होना। अध्याय 10 में शिष्यों के मिशन और उद्देश्य को सम्मिलित करता है; अध्याय 13 दृष्टान्तों का एक संग्रह है; अध्याय18 कलीसिया की चर्चा करता है; अध्याय 23 पाखण्ड और भविष्य के उपदेश से आरम्भ होता है। अध्याय 21 से लेकर 27 तक पकड़े जाने, सताए जाने और यीशु के क्रूसीकरण की चर्चा करता है। अन्तिम अध्याय पुनरूत्थान और महान् आदेश का विवरण करता है।

सम्पर्क : क्योंकि मत्ती का उद्देश्य यीशु मसीह को इस्राएल का राजा और मसीह के रूप में प्रस्तुत करना है, इसलिए वह अन्य तीनों सुसमाचार के लेखक से कहीं अधिक पुराने नियम को उद्धृत करता है। मत्ती पुराने नियम के भविष्यद्वाणियों के संदर्भों से 60 से अधिक बार उद्धृत करते हुए, यह दर्शाता है, कि यीशु ने उन्हें पूर्ण कर दिया है। वह अपने सुसमाचार यहूदियों के पूर्वज अब्राहम से रेखांकित करते हुए यीशु की वंशावली के साथ आरम्भ करता है। वहाँ से आगे, मत्ती व्यापक रूप से भविष्यद्वक्ताओं से उद्धृत करते हुए, इस वाक्यांश "जैसा कि भविष्यद्वक्ता(ओं) के द्वारा कहा गया था" का निरन्तर उपयोग करता है (मत्ती 1:22-23, 2:5-6, 2:15, 4:13-16, 8:16-17, 13:35, 21:4-5)। ये वचन उसके बैतलहम में (मीका 5:2) कुँवारी से जन्म लेने (यशायाह 7:14), हेरोदेश की मृत्यु उपरान्त मिस्र से वापस लौट आने (होशे 11:1), अन्य जातियों में उसकी सेवकाई (यशायाह 9:1-2; 60:1-3), शरीर और प्राण के लिए उसकी अद्भुत चंगाई (यशायाह 53:4), उसके द्वारा दृष्टान्तों में बोलने (भजन संहिता 78:2), यरूशलेम में उसके विजयी प्रवेश (जकर्याह 9:9) इत्यादि की पुराने नियम की भविष्यद्वाणियों को उद्धृत करते हैं।

व्यवहारिक शिक्षा : मत्ती का सुसमाचार मसीही विश्‍वास की केन्द्रीय शिक्षाओं के लिए एक उत्कृष्ट परिचय है। इसकी रूपरेखा में निहित तार्किक शैली विभिन्न विषयों को विचार विमर्श करने में आसानी उत्पन्न करती है। मत्ती विशेष रूप से इस समझ को पाने के लिए सहायतापूर्ण है, कि कैसे मसीह का जीवन पुराने नियम की भविष्यद्वाणियों को पूर्ण करता है।

मत्ती के इच्छित पाठक उसके साथी यहूदी थे, जिनमें से बहुत से — विशेष रूप से फरीसी और सदूकी थे — जिन्होंने बड़ी कठोरता के साथ यीशु को अपना मसीह स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। पुराने नियम के सदियों तक किए गए पठन् और अध्ययन के पश्चात् भी, उनकी आँखें इस सत्य के प्रति बन्द हो गई थीं, कि यीशु कौन था। यीशु ने उनके कठोर मनों के कारण और उसे स्वीकार करने से इन्कार करने के कारण उन्हें ताड़ना दी, जिसकी वे सम्भवतया प्रतीक्षा कर रहे थे (यूहन्ना 5:38-40)। वे मसीह को अपनी शर्तों के अनुसार चाहते थे, ऐसा जो उनकी इच्छाओं की पूर्ति करता और वही करता जिसे वे चाहते थे। हम भी कितनी बार परमेश्‍वर को हमारी शर्तों के ऊपर कार्य करने की इच्छा रखते है? क्या हम उसे इस रीति से इन्कार नहीं कर देते जब हम उसमें केवल उन्हीं गुणों की चाह करते हैं जो हमें ग्रहणयोग्य हो, ऐसे जो हमें अच्छा होने का अहसास दे सकें — अर्थात् उसका प्रेम, दया, अनुग्रह — जबकि हम उन गुणों को इन्कार कर देते हैं, जिन्हें हम आपत्ति योग्य पाते हैं — अर्थात् क्रोध, न्याय और उसका कोप इत्यादि? हम में फरीसियों के जैसे गलती करने का साहस नहीं होना चाहिए, जिन्होंने अपने स्वयं के स्वरूप के अनुसार परमेश्‍वर को रच लिया था और तब यह अपेक्षा करें कि वह हमारे मापदण्डों के अनुसार जीवन व्यतीत करे। इस तरह का परमेश्‍वर और कुछ नहीं अपितु मात्र एक मूर्ति ही है। बाइबल हमें परमेश्‍वर के सच्चे स्वभाव और पहचान के बारे में और यीशु मसीह ही हमारी आराधना और हमारी आज्ञाकारिता को प्राप्त करने के योग्य है, के प्रति पर्याप्त जानकारी प्रदान करती है।



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