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प्रश्न

क्या आवश्यक बुराई के होने जैसी कोई बात है?

उत्तर


डीटरिच बोनहोफ़र ने एक बार लिखा था, "बुराई करने से भी अधिक बुरा, बुरा होने में है।" इन शब्दों का उपयोग द्वितीय विश्‍व युद्ध के समय एडॉल्फ हिटलर की हत्या के लिए एक षडयन्त्र से अपनी गतिविधि का बचाव करने के लिए किया गया था। एक हत्या एक बुरी गतिविधि है, परन्तु बोनहोफ़र समेत कुछ लोग इसे नरसंहार की अधिक बुराई के प्रकाश में एक आवश्यक या अनिवार्य बुराई कहते हैं। पवित्रशास्त्र में समर्थित "आवश्यक बुराई" की धारणा पाई जाती है?

हमें सबसे पहले शब्द बुराई को परिभाषित करना चाहिए। पवित्रशास्त्र में इस शब्द के दो भिन्न उपयोग पाए जाते हैं: प्राकृतिक विपत्तियों और नैतिक रूप से भ्रष्ट (खराब) व्यवहार। यशायाह 45:7 में, परमेश्‍वर की ओर से बुराई को रचे जाने का एक सन्दर्भ पाया जाता है: "मैं उजियाले का बनानेवाला और अन्धियारे का सृजनहार हूँ, मैं शान्ति का दाता और विपत्ति को रचता हूँ, मैं यहोवा ही इन सभों का कर्ता हूँ।" (हिन्दी बी एस आई बाइबल)। इस सन्दर्भ में शब्द बुराई का अर्थ "आपदा" या "विपत्ति" से है। काव्य लेखन की विरोधाभासी समान्तरता शान्ति के सीधे विपरीत बुराई को रखती है। भावार्थ यह है कि परमेश्‍वर शान्ति के समय और परेशानी के समय को लाता है।

दूसरी तरह की बुराई, जो यह सूचना देती है कि कुछ बुरा या नैतिक रूप से गलत है, का उल्लेख मत्ती 12:35 में किया गया है, जहाँ एक "अच्छे" मनुष्य की तुलना "बुरे" मनुष्य के साथ की गई है। न्यायियों 3:12, नीतिवचन 8:13 और 3 यूहन्ना 1:11 को भी देखें।

"अनिवार्य बुराई" के प्रश्‍न के सम्बन्ध में दोनों परिभाषाओं की जाँच की जानी चाहिए। योना नीनवे शहर (योना 1:2) के ऊपर न्याय को घोषित करने के लिए परमेश्‍वर की ओर से बुलाया हुआ एक भविष्यद्वक्ता था। आज्ञा मानने की अपेक्षा, योना ने जहाज के द्वारा भागने का प्रयास किया। परमेश्‍वर ने जहाज के विरूद्ध एक भयानक, उग्र तूफान को भेजा, और जहाज के लोग अपने जीवन को लेकर डर गए। परिणामस्वरूप, योना जहाज के नीचे गिरा दिए जाने के लिए तैयार हो गया, और जब वह पानी के ऊपर गिरा, तो परमेश्‍वर की ओर से एक बड़ी मछली को उसे निगलने और उसे तीन दिनों तक अपने भीतर रखने के लिए प्रतीक्षा करते हुए तैयार किया। मछली के पेट के भीतर तूफान और उसका समय योना के लिए "बुराई" ("विपत्ति" के अर्थ में) थी, परन्तु ये ऐसी "आवश्यक" बुराइयाँ थीं कि योना आज्ञा की अवहेलना करने से पश्‍चाताप करे। न केवल योना को पुनर्स्थापित किया गया, अपितु नीनवे का पूरा शहर बचा लिया गया (योना 3:10)।

बाइबल के इतिहास में ऐसे लोग पाए जाते हैं, जिन्हें कथित "अच्छाई" को लाने के लिए गलत होने के बारे में बताया गया है। एक उदाहरण राजा शाऊल है, जिसने शमूएल की प्रतीक्षा करने की अपेक्षा परमेश्‍वर को बलिदान देने के लिए भेंट को स्वयं ही चढ़ा दिया था। शाऊल को पता था कि बलिदान चढ़ाना गलत था, परन्तु उसने तर्क दिया कि बलिदान न चढ़ाए जाने की अपेक्षा इसे (परमेश्‍वर के सम्मान में) चढ़ाने जाना उत्तम था। परमेश्‍वर ने इसे इस तरह से नहीं देखा था। शाऊल की अवज्ञा का परिणाम उसके राज्य का अन्त में समाप्त हो जाना था (1 शमूएल 13:8-14)।

कदाचित् ही कोई इसके विरूद्ध तर्क प्रस्तुत करे कि झूठ बोलना नैतिक बुराई नहीं है। तौभी पुराने नियम में दो उदाहरणों में झूठ बोलने के बाद सकारात्मक परिणाम सामने आते मिलते हैं (निर्गमन 1:15-21)। फिरौन से झूठ बोलने के बाद इब्रानी दाइयाँ परमेश्‍वर की आशीष को प्राप्त करने लगती हैं, और उनकी गतिविधियों ने कई इब्रानी लड़कों के जीवन को बचाया। वेश्या राहाब ने अपनी छत पर छुपे हुए इब्रानी जासूसों की रक्षा करने के लिए यरीहो के राजा से झूठ बोला (यहोशू 2:5)। बाद में, जब इस्राएल ने यरीहो को नष्ट कर दिया, तब परमेश्‍वर ने राहाब और उसके परिवार को बचाया। क्या ये झूठ एक "आवश्यक बुराई" थे? यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि बाइबल विशेष रूप से झूठ को अनदेखा नहीं करती है। इब्रानी दाइयों ने फिरौन के ऊपर परमेश्‍वर के आदेश का पालन करना चुना था। परमेश्‍वर ने उन्हें झूठ के लिए नहीं, अपितु उनकी आज्ञाकारिता के कारण उन्हें आशीष दी। राहाब को इसलिए नहीं बचाया गया क्योंकि उसने झूठ बोला अपितु इसलिए क्योंकि उसने विश्‍वास में होकर जासूसों का स्वागत किया था (यहोशू 6:17; इब्रानियों 11:31)। सच्चाई तो यह है, कि उसका झूठ बोलना उसकी योजना का हिस्सा था। यदि उसने झूठ नहीं बोला होता, तो यह कल्पना की जा सकती है कि यदि परमेश्‍वर किसी अन्य तरीके से हस्तक्षेप न करता – तो जासूसों को मार दिया जाता। दाइयों की परिस्थिति के प्रति इसी तरह का एक तर्क बनाया जा सकता है। किसी भी घटना में, झूठ को दो सम्भावित बुराइयों के रूप में देखा जा सकता है।

क्या दाइयों की बुराई आवश्यक थी? क्या राहाब की बुराई आवश्यक थी? "आवश्यक" एक प्रयत्न है, यद्यपि अन्तिम परिणाम सकारात्मक निकले थे। भले ही झूठ से किसी को लाभ प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है, जो कुछ दाइयों और राहाब ने किया, क्या वह पाप से भरी हुई गतिविधि थी, और ये वही पाप थे, जिन्हें यीशु ने क्रूस पर अपने ऊपर ले लिया था (यशायाह 53:6)।

कदाचित् ही कभी, यदि किसी को भी ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़े जहाँ दो बुराई में से एक का चुनाव करने का ही विकल्प उपलब्ध हो। ऐसी बातें घटित हो सकती हैं, जिन्हें हमें करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, जो हमारे लिए अप्रिय हो या जो हमारे सर्वोत्तम निर्णय के विरूद्ध हो। परन्तु, इस तथ्य को देखते हुए कि परमेश्‍वर अपने लोगों में पवित्रता चाहता है (1 पतरस 1:15), ऐसा प्रतीत होता है कि पाप करने के लिए यह सदैव "आवश्यक" नहीं है।

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