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प्रश्न

हमें यिर्मयाह के जीवन से क्या सीखना चाहिए?

उत्तर


यिर्मयाह भविष्यद्वक्ता इस्राएल के ढहते हुए राष्ट्र के अन्तिम दिनों में रहा। वह उचित रूप से, अन्तिम भविष्यद्वक्ता था, जिसे परमेश्‍वर ने दक्षिणी राज्य में प्रचार करने के लिए भेजा था, जो यहूदा और बिन्यामीन के गोत्र से मिलकर बना था। परमेश्‍वर ने निरन्तर इस्राएल को चेतावनी दी थी कि वे अपने मूर्तिपूजा से भरे हुए व्यवहार को रोक दें, परन्तु उन्होंने नहीं सुना, इसलिए उसने 12 गोत्रों को बिखरा दिया, जिसमें से 10 उत्तरी गोत्रों को अश्शूरियों की बन्धुवाई में भेज दिया। तब परमेश्‍वर ने यिर्मयाह को यहूदा के विरूद्ध अन्तिम चेतावनी देने के लिए भेजा, इससे पहले कि वह उन्हें उनकी भूमि में से बाहर निकालते हुए, उनकी जाति को नष्ट कर दे और बेबीलोन के मूर्तिपूजा राज्य की बन्धुवाई में भेज दे। एक विश्‍वासयोग्य, परमेश्‍वर का भय खाने वाले व्यक्ति के रूप में, यिर्मयाह को इस्राएल को यह बताने के लिए बुलाया गया था कि उनके द्वारा पश्‍चाताप ने किए हुए पाप के कारण, उनका परमेश्‍वर उनके विरूद्ध हो गया है और अब उसने एक मूर्तिपूजक राजा को उन्हें उनकी भूमि पर से हटाने के लिए तैयार किया है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि यिर्मयाह, जो केवल तब 17 वर्ष का ही था, जब परमेश्‍वर ने उसे बुलाया था, उसके लोगों के भविष्य को लेकर अत्यधिक आन्तरिक उथल-पुथल में था, और उसने उन्हें सुनने के लिए विनती की। उसे "रोते हुए भविष्यद्वक्ता" के रूप में जाना जाता है, क्योंकि उसने दु:ख के आँसूओं को न केवल इसलिए बहाया, क्योंकि वह जानता था कि क्या घटित होने पर था, परन्तु इसलिए भी कि वह कितना भी अधिक प्रयास क्यों न कर ले, लोग उसकी नहीं सुनेंगे। इसके अतिरिक्त, उसे कोई मानवीय सांत्वना प्राप्त नहीं हुई। परमेश्‍वर ने उसे विवाह करने या सन्तान उत्पन्न करने से मना किया था (यिर्मयाह 16:2), और उसके मित्रों ने उससे मुँह मोड़ लिया था। इसलिए, शीघ्र आने वाले न्याय के ज्ञान के बोझ के साथ, वह भी स्वयं को बहुत अकेला महसूस करता होगा। परमेश्‍वर जानता था कि यिर्मयाह के लिए यही सबसे अच्छा जीवन था, क्योंकि वह उसे यह बताते हुए चला जाता है कि थोड़े ही समय में शिशुओं, बच्चों और वयस्कों की "पीड़ादायी" मृत्यु बहुत अधिक भयानक तरीके से होगी, कोई उनके शरीरों को भी गाड़ नहीं पाएगा, और उनकी लोथ को पक्षियों के द्वारा खाया जाएगा (यिर्मयाह 16:3-4)।

स्पष्ट है, कि इस्राएल के लोग पाप के स्तब्ध कर देने वाले प्रभावों के प्रति इतने अधिक कठोर हो गए थे कि वे अब न केवल परमेश्‍वर के ऊपर विश्‍वास करते थे, अपितु उससे डरते भी नहीं थे। यिर्मयाह ने 40 वर्षों तक प्रचार किया, और उसने एक बार भी हठी, मूर्तिपूजक लोगों के मन और हृदय में परिवर्तन या कोमलता की किसी वास्तविक सफलता को नहीं देखा। इस्राएल के अन्य भविष्यद्वक्ताओं ने कुछ सफलताओं को तो देखा था, कम से कम थोड़ी देर के लिए, परन्तु यिर्मयाह ने ऐसा कुछ नहीं देखा। वह ईंट की एक दीवार से बात कर रहा था; तथापि, उसके शब्द व्यर्थ नहीं गए। वे एक अर्थ में, सूअर के आगे डाले जा रहे मोती थे, और जो प्रत्येक उस व्यक्ति को दोषी ठहरा रहे थे, जिसने उन्हें सुना और जिसने चेतावनी के ऊपर ध्यान देने से इन्कार कर दिया।

यिर्मयाह ने लोगों को यह समझाने का प्रयास किया कि उनकी समस्या परमेश्‍वर में विश्‍वास, भरोसा और विश्‍वास की कमी के साथ डर की अनुपस्थिति थी, जिसके कारण उन्होंने परमेश्‍वर को घर की मुर्गी दाल के बराबर समझ लिया था। सुरक्षा की झूठी भावना में लौट जाना बहुत अधिक आसान होता है, विशेष रूप से जब ध्यान परमेश्‍वर के ऊपर केन्द्रित नहीं होता है। इस्राएल के राष्ट्र ने, आज के कई अन्य राष्ट्रों की तरह, परमेश्‍वर को प्रथम स्थान पर रखना बन्द कर दिया था, और उसके स्थान को झूठे देवताओं के साथ परिवर्तित कर दिया था, जो उन्हें दोषी महसूस नहीं कराते थे या उन्हें पाप के लिए दोषी नहीं मानते थे। परमेश्‍वर ने अपने लोगों को मिस्र की बन्धुवाई से छुड़ाया था, उनके सामने आश्‍चर्यकर्म किए थे, और उनके लिए समुद्र के पानी का दो भागों में बाँट दिया था। परमेश्‍वर की सामर्थ्य के इन सभी प्रदर्शनों के पश्‍चात् भी, वे मिस्र में से शिक्षा प्राप्त झूठी प्रथाओं की ओर लौट गए थे, यहाँ तक कि वे झूठी "स्वर्ग की रानी" के सामने, अन्य संस्कारों और अनुष्ठानों का प्रदर्शन करते हुए, जो मिस्र की संस्कृति और धर्म का हिस्सा थे, मन्नतें निर्धारित किया करते थे। परमेश्‍वर ने अन्तत: उन्हें उनकी मूर्ति में ही यह यह कहते हुए परिवर्तित कर दिया कि, “इसलिये अब तुम अपनी अपनी मन्नतों को मानकर पूरी करो!” (यिर्मयाह 44:25)।

यिर्मयाह हतोत्साहित हो गया। वह एक दलदल में डूब गया, जहाँ पर कई विश्‍वासियों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे फंस गए हैं, जब वे यह सोचते हैं कि उनके प्रयासों से कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है और समय समाप्त होता चला जाता है। यिर्मयाह भावनात्मक रूप थक चुका था, यहाँ तक कि वह परमेश्‍वर के ऊपर सन्देह करने लगा था (यिर्मयाह 15:18), परन्तु परमेश्‍वर उसके कार्य को पूरा नहीं किया था। यिर्मयाह 15:19 प्रत्येक विश्‍वासी के लिए उस समय में स्मरण किए जाने वाली शिक्षा को लिपिबद्ध किया गया है, जब वह स्वयं को अकेला, व्यर्थ और हतोत्साहित महसूस करता है और जब उसका विश्‍वास डगमगा रहा होता है: “यहोवा ने यों कहा, 'यदि तू फिरे, तो मैं फिर से तुझे अपने सामने खड़ा करूँगा। यदि तू अनमोल को कहे और निकम्मे को न कहे, तब तू मेरे मुख के समान होगा। वे लोग तेरी ओर फिरेंगे, परन्तु तू उनकी ओर न फिरना।''' परमेश्‍वर यिर्मयाह से कह रहा था, मेरे पास लौट आ, और मैं तुझे तेरे उद्धार का आनन्द प्रदान करूँगा। ये दाऊद के द्वारा लिखे गए शब्दों के जैसा प्रतीत होते हैं, जब उसने बतशेबा के साथ अपने द्वारा किए हुए पाप का पश्‍चाताप किया था (भजन संहिता 51:12)।

हम यिर्मयाह के जीवन से जिस शिक्षा को प्राप्त करते हैं, उसे जानने से यह सांत्वना मिलती है, कि प्रत्येक विश्‍वासी की तरह, यहाँ तक कि परमेश्‍वर के बड़े भविष्यद्वक्ता भी, प्रभु परमेश्‍वर के साथ चलते हुए अपने जीवन में अस्वीकृति, अवसाद और हतोत्साह का अनुभव कर सकता है। यह आत्मिक रूप से बढ़ने का एक सामान्य पहलू है, क्योंकि हमारा पापी स्वभाव हमारे नए स्वभाव के विरूद्ध युद्ध करता है, जो कि परमेश्‍वर के आत्मा के द्वारा उत्पन्न होता है, गलातियों 5:17 के अनुसार: “क्योंकि शरीर आत्मा के विरोध में और आत्मा शरीर के विरोध में लालसा करता है, और ये एक दूसरे के विरोधी हैं, इसलिये कि जो तुम करना चाहते हो वह न करने पाओ।” परन्तु जैसे यिर्मयाह ने खोज लिया था, हम जान सकते हैं कि हमारे परमेश्‍वर की विश्‍वासयोग्यता अनन्त है; तब भी जब हम उसके प्रति लापरवाह हो जाते हैं, वह अटल बना रहता है (2 तीमुथियुस 2:13)।

यिर्मयाह को एक पसन्द न किए जाने वाले सन्देश को देने का काम दिया गया था, जिसने इस्राएल को निरूत्तर करने वाले सन्देश को दिया, जिसने उसे बहुत अधिक मानसिक पीड़ा दी, साथ ही उसे अपने लोगों की दृष्टि में तिरस्कृत बना दिया। परमेश्‍वर कहता है कि उसका सत्य खोए हुए लोगों के लिए "मूर्खता" की तरह प्रतीत होता है, परन्तु विश्‍वासियों के लिए यह जीवन के वचन हैं (1 कुरिन्थियों 1:18)। वह यह भी कहता है कि वह समय आएगा जब लोग सच्चाई को सहन नहीं करेंगे (2 तीमुथियुस 4:3-4)। यिर्मयाह के दिनों में इस्राएल के लोग उसे नहीं सुनना चाहते थे, जिसे वह कहना चाहता था और उसके द्वारा न्याय के प्रति निरन्तर चेतावनी ने उन्हें क्रोधित कर दिया था। यह आज के संसार के बारे में भी सच है, क्योंकि विश्‍वासियों के रूप में, जो परमेश्‍वर के निर्देशों का पालन कर रहे हैं, शीघ्रता से आने वाले न्याय खोए हुए और मरते हुए संसार को चेतावनी दे रहे हैं (प्रकाशितवाक्य 3:10)। यद्यपि बहुत से लोग नहीं सुन रहे हैं, परन्तु हमें भयानक न्याय से बचाव के लिए सच्चाई का वर्णन करना चाहिए जो कि अनिवार्य रूप से सामने आने वाला है।

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