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प्रश्न

एक धर्मनिन्दक क्या है?

उत्तर


शब्द धर्मनिन्दक का अर्थ "विश्‍वास रहित होना" या "विश्‍वास के विरूद्ध" होना है। एक धर्मनिन्दक व्यक्ति वह व्यक्ति है, जो धर्म को अस्वीकृत कर देता है। यद्यपि, अधिक प्रसिद्ध, शब्द धर्मनिन्दक — infidels.org नामक एक ऐसी वेबसाइट के साथ जुड़ी हुई है, जो मसीही विश्‍वास के ऊपर आक्रमण करती है। इन्टरनेट के द्वारा धर्म के विरोधी धर्मनिन्दक, सेक्यूलर वेब अर्थात् धर्मनिरपेक्ष वेब के नाम से भी जाने जाते हैं, जो कि इन्टरनेट पर नास्तिक और प्रकृतिविदों की प्रमुख वेबसाइटों में से एक है। इसका उल्लिखित लक्ष्य इन्टरनेट पर एक प्राकृतिक वैश्विक दृष्टिकोण का मण्डन और प्रचार करना है। मसीही धर्ममण्डक जे.पी. होल्डिन्ग ने ऐसा कहा है, "सेक्यूलर वेब के पास कुछ बुद्धिमान लोग हैं, परन्तु, कुल मिलाकर यह लम्बे समय से उनकी विशेषज्ञता से परे के विषयों के ऊपर सन्देहों से भरी हुई सभी जानकारियों के प्रति सब-कुछ-जानने का निर्णय देने के लिए उत्तम स्थान ठहरी है।"

इस लेख का उद्देश्य प्रत्येक ऐसे विषय के ऊपर व्यापक खण्डन को प्रस्तुत नहीं करना है, जो कि इन्टरनेट धर्मनिन्दकों के द्वारा उठाए गए हैं। अपितु, इसका उद्देश्य इन्टरनेट धर्मनिन्दकों की वेबसाइट की पृष्ठिभूमि में पाए जाने वाले कई भ्रमों में से कुछ के बारे में बात करना है।

एक धर्मनिन्दक क्या है? — वह जो यीशु के अस्तित्व का इन्कार करता है
इन्टरनेट धर्मनिन्दकों के दावों में यह पाया जाता है कि यीशु का कभी अस्तित्व ही नहीं था, एक ऐसी परिकल्पना जो नए नियम के ऊपर शास्त्रीय रूप से अनुसन्धान करने वाले विद्वानों के चारों ओर लम्बे समय से बनी हुई है, परन्तु जो कभी भी विद्वानों के विशेष समूह से समर्थन प्राप्त करने में सक्षम नहीं हुई है। मार्शल जे. गॉविन ने अपने लेख "क्या यीशु मसीह कभी रहते थे?" में स्पष्ट रूप से कहा है कि "आश्चर्यकर्म प्रगट नहीं होते हैं। आश्चर्यकर्मों की कहानियाँ असत्य हैं। इसलिए, जो दस्तावेज आश्चर्यकर्मों के वृतान्त को प्रतिष्ठित तथ्यों के साथ मिला कर बने हुए हैं, वे अविश्‍वसनीय हैं, क्योंकि जिन लोगों ने आश्चर्यकर्मों के तत्वों का आविष्कार किया है, वे आसानी से उन अंशों का भी आविष्कार कर सकते हैं, जो कि स्वाभाविक थे।" यदि एक व्यक्ति प्राकृतिकवादी वैश्विक दृष्टिकोण को यह कहते हुए मानता है कि आश्चर्यकर्म असम्भव है, तब तो एक व्यक्ति एक ईश्‍वर के अस्तित्व को मानने के द्वारा ईश्‍वरवादी वैश्विक दृष्टिकोण को प्रमाणित करने का प्रयास आसानी से कर सकता है। किसी भी तरह से, यह तर्क स्वयं का ही- खण्डन कर रहा है।

गॉविन की अक्षमता और इस विषय के प्रति पूर्ण रीति से गलत समझ को आगे निम्नलिखित अनुच्छेद में स्पष्ट किया गया है:

इस सिद्धान्त के ऊपर कि मसीह को क्रूस पर चढ़ाया गया था, हम इस तथ्य को कैसे समझाएँ कि मसीहियत के विकास के पहले की आठ शताब्दियों के मध्य में, मसीहियत की कला ने एक व्यक्ति को नहीं, अपितु एक मेम्ने को संसार के उद्धार के लिए क्रूस के ऊपर पीड़ित होने के रूप में प्रस्तुत किया? न तो मृत शरीर को रखने वाले तहखानों में की गई चित्रकारी और न ही मसीही कब्रों के ऊपर बनी हुई मूर्तियों में क्रूस के ऊपर एक मानव आकृति किसी का चित्रिण कर रही हैं। प्रत्येक स्थान में एक मेम्ने को मसीही प्रतीक चिन्ह — क्रूस को उठा कर ले जाते हुए एक मेम्ना, एक क्रूस के चरणों के पास एक मेम्ना, एक कूस्र के ऊपर एक मेम्ना के रूप में दिखाया गया था। कुछ चित्रों ने मानवीय सिर, कन्धों और बाहों के साथ मेम्ने को दिखाया है, जो अपने हाथों में एक क्रूस को थामे हुए है — परमेश्‍वर का मेम्ना मनुष्य का रूप धारण करने की प्रक्रिया में है — क्रूसीकरण का मिथक यथार्थवादी बन रहा है। आठवीं शताब्दी के अन्त में, पोप हेड्रियन — 1, ने कॉन्स्टेंटिनोपल के छठी महासभा में एक आदेशपत्र की पुष्टि करते हुए, यह आदेश दिया था कि इसके पश्चात् क्रूस के ऊपर मेम्ने के स्थान पर एक व्यक्ति के चित्र को स्थान ले लेना चाहिए। मसीहियत को अपने पीड़ित उद्धारक के प्रतीक चिन्ह को विकसित करने के लिए आठ सौ वर्षों का समय लगा। क्योंकि, आठ वर्षों तक मसीह के क्रूस के ऊपर एक मेम्ना था। परन्तु, यदि मसीह ही यथार्थ में क्रूसित हुआ था, तब क्यों क्रूस पर उसके स्थान में एक मेम्ना रहा था? तर्कवाद और इतिहास के आलोक और क्रूस के ऊपर मेम्ने के होने को ध्यान में रखते हुए, हमें क्योंकि क्रूसीकरण के ऊपर विश्‍वास करना चाहिए?

इस प्रकार के तर्कों के लिए ऐसे मसीहियों के लिए किसी भी तरह की कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है, जिन्हें बाइबल का मूलभूत ज्ञान है। गॉविन यहाँ तक कि मसीहियत के फसह के मेम्ने के प्रतीक चिन्ह को भी सम्बोधित नहीं करता; निश्चित रूप से यह कम से कम एक उल्लेखनीय स्थान तो रखता ही है?

आइए इन्टरनेट धर्मनिन्दकों के लेखों के द्वारा उठाए गई तीन मुख्य बातों पर अपने ध्यान को केन्द्रित करें। ये धर्मनिरपेक्ष सन्दर्भों की कमी का होना, गूढ़ज्ञानवादी स्रोतों के लिए वैध सुममाचारों की तुलना और मूर्तिपूजावाद की कथित समानताएँ हैं।

आइए सबसे पहले, हम जोसिफुस द्वारा यीशु के लिए दिए हुए सन्दर्भ के ऊपर विचार करें। गॉविन ऐसे लिखते हैं:

पहली शताब्दी के अन्तिम वर्षों में, जोसिफुस, प्रसिद्ध यहूदी इतिहासकार ने "यहूदियों का प्राचीन इतिहास" नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक को लिखा था। इस पुस्तक में, इतिहासकार ने मसीह का कोई उल्लेख नहीं किया है, और जोसिफुस की मृत्यु के दो सौ वर्षों के पश्चात्, मसीह का नाम उसके इतिहास नामक पुस्तक में प्रगट नहीं हुआ था। उन दिनों में छापाखाना नहीं थे। पुस्तकों की गिनती उनकी नकलों को बनाने के द्वारा बढ़ती थी। इसलिए, इन पुस्तकों में एक लेखक के द्वारा लिखी हुई बातों में बढ़ाना या परिवर्तन करना आसान था। कलीसिया ने महसूस किया कि जोसिफुस के द्वारा मसीह की पहचान की जानी चाहिए, और इसे मरे हुए इतिहासकार के द्वारा कर दिया गया। चौथी शताब्दी में, "यहूदियों का प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक की एक प्रतिलिपि प्रगट हुई, जिसमें यह अनुच्छेद पाया जाता है : "अब, इस समय में, यीशु, एक बुद्धिमान व्यक्ति, यदि वह वैधानिक रूप से एक व्यक्ति कहने के योग्य है, क्योंकि वह अद्भुत कामों को प्रगट करता था; इस शिक्षक से लोगों ने प्रसन्नता के साथ सत्य को प्राप्त किया। उसने अपने निकट कई यहूदियों और कई अन्य गैर यहूदियों को आकर्षित कर लिया था। वह मसीह था; और जब पीलातुस ने हमारे मध्य में मुख्य लोगों के सुझाव पर उसे क्रूस पर चढ़ाने के लिए दण्डित कर दिया, तब जिन्होंने उसे सबसे पहले पहले प्रेम किया, उन्होंने उसे पहले नहीं त्यागा; क्योंकि वह उनके आगे तीसरे दिन जीवित होकर प्रगट हो गया, जैसा कि परमेश्‍वर प्रेरित भविष्यद्वक्ताओं ने इन बातों को और उसके सम्बन्ध में दस हजार अन्य बातों को पहले से ही कह दिया था; और उसके नाम के पश्चात्, मसीहियों का गोत्र इस दिन तक विलुप्त नहीं हुआ है।"

यह सच है कि यह प्रश्‍न कदाचित् ही किया गया है कि यहूदियों के प्राचीन इतिहास के इस अनुच्छेद में कुछ अन्तर्वेशन अर्थात् अतिरिक्त बातों को जोड़ना सम्मिलित है, जिन्हें उसके लिखे जाने के समय के पश्चात् आए हुए शास्त्रियों के द्वारा इसमें जोड़ दिया गया है (विद्वानों का एक बहुत ही छोटा अल्पसंख्यक समूह यह मानता है कि यह अनुच्छेद पूर्ण रूप से वास्तविक है)। परन्तु इन्टरनेट धर्मनिन्दक इसे "पूर्ण अन्तर्वेशन" के रूप में मानते हुए प्रतीत होते हैं।

इस अनुच्छेद को आंशिक रूप से जब एक बार स्पष्ट अन्तर्वेशनों को हटा दिए जाए तब वास्तविक होने के रूप में स्वीकार करने के कुछ कारण क्या हैं? कदाचित्, अधिकांश अग्रणी विद्वानों को आंशिक प्रामाणिकता के दृष्टिकोण को स्वीकार करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य जोसिफुस की विशिष्ट भाषा और शैली को दर्शाने वाला महत्वपूर्ण भाग है। इसके अतिरिक्त, जब स्पष्ट शास्त्रीय अन्तर्वेशनों को हटा दिया जाता है, तब शेष केन्द्रीय अनुच्छेद आपस में संगत और अच्छे प्रवाह में चलता है।

यीशु के सम्बन्ध में इस सन्दर्भ का एक बड़ा अंश विद्वानों के एक बड़े बहुमत द्वारा जोसिफुस की शैली के रूप में माना जाता है, और केवल कुछ ही वाक्यांश स्पष्ट रूप से मसीही हैं। इसके अतिरिक्त, जोसिफुस के बहुत से वाक्यांश इन आरम्भिक मसीही साहित्य, और अनुच्छेदों या शब्दों से अनुपस्थिति हैं, जिन्हें मसीहियों के द्वारा उपयोग न किए जाने की सम्भावना थी, परन्तु वे यहाँ पर उपस्थित हैं। तत्पश्चात् वहाँ पर एक और वाक्यांश पाया जाता है, जिसे किसी भी मसीही शास्त्री के द्वारा एक त्रुटि माना जाता होगा ("उसने अपने निकट कई यहूदियों और कई अन्य गैर यहूदियों को आकर्षित कर लिया था")।

यह बात रूचिपूर्ण है कि गॉविन ने जोसिफुस के लेखों में यीशु के दूसरे सन्दर्भों का उल्लेख करने की उपेक्षा की — जिनकी प्रामाणिकता को लगभग सभी विद्वान पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं:

परन्तु जवान हनन्याह, जिसके लिए हमने जैसा कहा है कि उसने महायाजक के पद को प्राप्त किया था, एक साहसी और असाधारण दृढ़ता वाले स्वभाव का व्यक्ति था; उसने सदूकियों की विचारधारा का अनुसरण किया, जो यहूदियों के ऊपर दण्ड में अत्यधिक गम्भीर थे, जैसा कि हमने पहले ही देख लिया है। इस कारण, हनन्याह इस तरह के मनोवृत्ति का था कि उसने सोचा कि अब उसके पास एक अच्छा अवसर था, क्योंकि फ़ेस्तुस अब मर चुका था, और अल्बीनीऊस अभी अपने पद तक नहीं पहुँचा था; इसलिए उसने न्यायियों की एक सभा को एकत्र किया, और यीशु तथाकथित मसीह के नाम से जाने वाले के भाई, जिसका नाम याकूब था, को सभा के सामने अन्यों के साथ ले आया और उन पर व्यवस्था को तोड़ने का दोष लगाते हुए, उन्हें पत्थरवाह के लिए उनके हाथों में सौंप दिया।

विद्वानों का एक बड़ा बहुमत इसे निम्नलिखित कारणों से एक प्रमाणिक सन्दर्भ के रूप में मानते हैं:

1. इस सन्दर्भ के विरोध में कोई मूलपाठ सम्बन्धी प्रमाण नहीं मिलता है। यह यहूदियों का प्रचान इतिहास नामक पुस्तक की लगभग प्रत्येक पाण्डुलिपि में पाया जाता है। संयोगवश, यह उपरोक्त सन्दर्भ के ऊपर भी लागू होता है।

2. इसमें विशेष रूप से गैर-मसीही शब्दावली का उपयोग किया गया है। उदाहरण के लिए, "यीशु के भाई" याकूब की पदवी का उपयोग "प्रभु के भाई याकूब" के वाक्यांश के मसीही अभ्यास का विरोधाभासी है। इसलिए, यह सन्दर्भ न तो नए नियम न ही प्राचीन मसीही उपयोग की अनुरूपता में पाया जाता है।

3. इस अनुच्छेद का महत्व न तो यीशु, यहाँ तक कि न ही याकूब के ऊपर है, अपितु महायाजक हनन्याह के ऊपर है। यहाँ पर न तो यीशु और न ही याकूब की प्रशंसा की गई है।

4. न तो यह सन्दर्भ न ही यह अपनी व्यापकता में यीशु को यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के साथ सम्बन्धित करता है, जैसा कि एक मसीही अन्तर्वेशक अर्थात् जोड़ने वाले से अपेक्षा की जानी चाहिए।

गॉविन आगे तर्क देते हैं :

रोमन इतिहासकार टाकिटुस के "वार्षिकवृतान्त" में एक और संक्षिप्त अनुच्छेद पाया जाता है, जो "ख्रिस्तुस" के नाम पर एक समूह के संस्थापक के रूप में मसीहियों — एक लोगों की देह — "जिनसे उनके अपराधों के लिए घृणा की जाती थी" को निर्मित करने की बात करता है। ये शब्द टाकिटुस के रोम के जला दिये जाने के वृतान्त में पाए जाते हैं। इस अनुच्छेद के प्रमाण जोसिफुस के अनुच्छेद की तुलना में अधिक दृढ़ नहीं हैं। इसे पन्द्रहवीं शताब्दी से पहले किसी भी लेखक के द्वारा उद्धृत नहीं किया गया था; और जब यह उद्धृत किया गया था, तब संसार में "वार्षिकवृतान्त" की केवल एक ही प्रति थी; और इस प्रति को टाकिटुस की मृत्यु के छ: सौ वर्षों पश्चात् — आठवीं शताब्दी में बनाए जाने की सम्भावना है। "वार्षिकवृतान्त" 115 से लेकर 117 ईस्वी सन् में, यीशु के समय के एक शताब्दी पश्चात् प्रकाशित किए गए थे — इसलिए यदि अनुच्छेद यदि कितना भी अधिक वास्तविक क्यों न हो, यीशु के प्रति कुछ भी अधिक को प्रमाणित नहीं करेगा।

यह बड़ी सरलता से मुख्य बात को खो देने जैसा है। पहली-शताब्दी के पलिश्तीन में यीशु के अस्तित्व को लेकर किसी तरह का कोई विवाद नहीं था, और टाकिटुस और अन्यों के द्वारा किए हुए नकारात्मक सन्दर्भ इतने अधिक शक्तिशाली प्रमाणों को प्रदान करते हैं कि यीशु कम से कम वास्तविक रूप से जाना गया, प्रथम शताब्दी का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति था। क्यों नकारात्मक टिप्पणीकारों ने उसके अस्तित्व को अस्वीकृत नहीं किया? उन्होंने अपनी सूचनाओं को कहा से प्राप्त किया? इसके अतिरिक्त, टाकिटुस की सावधानीपूर्वक की गई जाँच सबसे अधिक प्रसिद्ध विशेषताओं में से एक है। एक इतिहासकार के रूप में उसकी विश्‍वसनीयता किसी भी स्रोत से इस अविवेकपूर्ण सूचना को कहीं से प्राप्त करने के विरोध में है। यह कि टाकिटुस ने अपनी इस जानकारी को मसीहियों से प्राप्त किया इस बात से अप्रमाणित हो जाती है कि उसे यह जानकारी मसीहियों से प्राप्त हुई थी।

क्या टाकिटुस केवल उन्हीं बातों को दोहराने के लिए इच्छुक था, जिन्हें उन लोगों के द्वारा उसे बताया गया, जिन्हें वह पसन्द नहीं करता था? आखिरकार, यहूदियों के इतिहास और मान्यताओं को लिपिबद्ध करते हुए, जिनका वह मसीहियों के जितना ही तिरस्कार करता था, यह उसके उपेक्षित वृतान्तों वर्णनों से बहुत अधिक स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि टाकिटुस यहूदियों के साथ "अपने दृष्टिकोण" या यहाँ तक कि "यहूदियों मुख़बिरों" के साथ परामर्श लेने के लिए भी इच्छुक नहीं था।

गॉविन ने यीशु के प्रति अन्य आरम्भिक धर्मनिरपेक्ष सन्दर्भों के उल्लेख छोड़ देता है, जिसमें ताल्मूद में और लुसियन, प्लनी, सेटोनियस, टाकिटुस, और थल्लूस के लेखों में पाए जाने वाले सन्दर्भ भी सम्मिलित हैं। परन्तु, चाहे हम यीशु के बारे में पहली बार या द्वितीय-शताब्दी के धर्मनिरपेक्ष सन्दर्भों को नहीं माने, तौभी हमारे पास उसके अस्तित्व के लिए एक बहुत ही दृढ़ प्रमाण मिलता है। ऐसा क्यों है? यदि यीशु के अनुयायियों ने एक पौराणिक यीशु को निर्मित करने का निर्णय लिया होता और उसके बारे में इन बातों को ऐसा कहते हुए उसे इस रूप में चित्रित किया होता कि वह ऐसा व्यक्ति था, जिसने मसीह को होने के अधिकार का दावा किया, तब तो कई समस्याएँ उठ खड़ी होतीं। सबसे पहले, उन्होंने निश्चित रूप से ऐसा पूरी तरह से गलत तरीके से किया होता। यदि उनके पास एक नए धर्म को आरम्भ करने का लक्ष्य होता, तब यह उन लोगों की अपेक्षाओं के अनुसार निर्मित करने के लिए उपयुक्त हो सकता है, जिन्हें वे समझाने का प्रयास कर रहे थे। मसीह की यहूदी अवधारणा एक महान् सैन्य नेता की थी, जो उनके रोमी दमनकारियों के विरूद्ध जय में ले चलने की ओर उनका नेतृत्व करेगा। दूसरा, आधुनिक विद्वता सर्वसम्मति से यह सहमति व्यक्त करती है कि शिष्यों ने पूर्ण निष्ठा के साथ उसी बात में विश्‍वास किया जिसे वे घोषित कर रहे थे (वे इसके लिए अमानवीय रीति से, अन्य तर्कों के मध्य में, उनके अपने तर्क को छोड़े बिना मरने के लिए भी तैयार थे) विश्‍वास करते थे। तीसरा, यह देखते हुए कि पुनरुत्थान के पश्चात् सबसे पहले की मसीही सुसमाचार की घोषणा यरूशलेम में की गई थी (जहाँ यीशु की सार्वजनिक सेवकाई का आधार पाया जाता है), वे किसी कहानी को निर्मित करने के लिए उपलब्ध सामग्री के सन्दर्भ में कुछ सीमा तक सीमित थे। यदि यीशु का अस्तित्व एक मनगढ़ंत कहानी होती, तो क्या वे निश्चित रूप से वे रोम में या अन्य स्थानों में प्रचार कर सकते थे, जहाँ उन्हें प्रत्यक्षदर्शी गवाह मिल सकते थे।

इसके अतिरिक्त, क्रूसीकरण के पश्चात् शिष्यों के द्वारा सामना की जाने वाली परिस्थिति के ऊपर ध्यान दें। उनका अगुवा मर चुका था। और यहूदियों को पारम्परिक रूप से मरने पर विश्‍वास नहीं था, मसीह के पुनरूत्थान पर तो बहुत ही कम था। सच्चाई तो यह है कि मृत्यु के विषय में रूढ़िवादी यहूदी मान्यताओं ने संसार के अन्त में होने वाले सामान्य पुनरुत्थान से पहले किसी को भी मृतकों में से जीवित हो महिमा और शारीरिक रूप से अमरता प्राप्त करने को अस्वीकृत कर दिया था। मसीह के पुनरुत्थान के बारे में भविष्यद्वाणियों के सम्बन्ध में रब्बियों की व्याख्या यह थी कि वह समय के अन्त में मृतकों में से अन्य सभी मृतक सन्तों के साथ जीवित होगा। इस प्रकार महत्वपूर्ण है कि शिष्यों का शारीरिक पुनरुत्थान की ओर कोई अनिवार्य दृष्टिकोण नहीं था, क्योंकि यह प्रचलित यहूदी मानसिकता को देखते हुए, संस्कृति-विरोधी था। इसलिए ही कदाचित, जैसा कि यूहन्ना अपने वृतान्त में गवाही देता है (यूहन्ना 20:9), कि खाली कब्र की खोज के ऊपर, "वे अब तक पवित्रशास्त्र की वह बात न समझे थे कि उसे मरे हुओं में से जी उठना होगा।" यदि शिष्यों ने एक मनगढ़ंत आदर्श को निर्मित किया था, तब तो निस्सन्देह उन्होंने अपनी ओर से एक आत्मिक पुनरुत्थान को प्रस्तुत किया था, क्योंकि एक शारीरिक और आत्मिक पुनरुत्थान को बड़ी आसानी के साथ एक मृत देह की उपस्थिति के द्वारा प्रमाणित करके उजागर किया जा सकता था। इसकी अपेक्षा, उन्होंने एक वास्तविक शारीरिक देह के पुनरुत्थान के बारे में बात की, जो यदि असत्य था, तो एक मृत देह के प्राप्त हो जाने के बहुत बड़े खतरे में स्वयं को डालने जैसा था। इसकी अपेक्षा, उन्होंने शाब्दिक पुनरुत्थान में इसलिए विश्‍वास किया क्योंकि उन्होंने स्वयं इसकी गवाही दी थी। उन दिनों के धार्मिक अगुवे मसीहियत को दबा देने से अधिक कुछ नहीं चाहते थे।

एक अन्तिम कारण यह है कि क्यों यीशु के अनुयायियों ने मसीह की क्रूस के द्वारा होने वाली मृत्यु के सम्बन्ध में एक मिथक कथा को प्रस्तुत करने की सम्भावना को प्रस्तुत करने की कोई गलती नहीं की होगी। यहूदी व्यवस्था के अनुसार एक वृक्ष के ऊपर लटकने के द्वारा यीशु की मृत्यु का होना परमेश्‍वर के द्वारा शाब्दिक रूप से शापित व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है (व्यवस्था विवरण 21:23)। क्रूसीकरण निश्चित रूप से आरम्भिक कलीसिया की मानसिकता के लिए एक दुर्घटना थी, क्योंकि यह प्रभावी रूप से दिखाया गया था कि फरीसी और यहूदी महासभा सही थी और यह कि शिष्यों ने अपने घरों, परिवारों और सम्पत्ति को एक विधर्मी, परमेश्‍वर द्वारा शापित एक व्यक्ति का अनुसरण करने के लिए छोड़ दिया था।

एक धर्मनिन्दक क्या है? — भ्रामक कथन
गॉविन के अनुसार:

आरम्भिक शताब्दियों में सुसमाचार के कई प्रचलित स्वरूप विद्यमान थे, और उनमें से बड़ी सँख्या नकली सुसमाचारों की थी। इनमें से कुछ "पौलुस का सुसमाचार", "बरतुल्मे की सुसमाचार", "यहूदा इस्कारियोती का सुसमाचार", "मिस्रियों का सुसमाचार" "पतरस का सुसमाचार या अनुस्मरण," "मसीह के अगम वाक या धन्य वचन," और कई अन्य धार्मिक लेख, जिनमें से एक संग्रह को अब भी "नए नियम के अप्रमाणिक ग्रन्थ" के रूप में पढ़ा जा सकता है। अस्पष्ट लोगों ने सुसमाचारों को लिखा और उन्हें प्रमुख मसीही विश्‍वासियों के नाम के साथ महत्वपूर्ण होने के रूप में प्रगट करते हुए जोड़ दिया। नकली लेखों को प्रेरितों और यहाँ तक कि मसीह के नाम के ऊपर लिखा गया था। विद्वान मसीही शिक्षकों ने यह शिक्षा दी थी कि विश्‍वास को महिमान्वित करने के लिए धोखा देना और झूठ बोलना एक गुण था। मानक मसीही इतिहासकार डीन मिलमैन ऐसे कहते हैं: "धार्मिकता भरी धोखाधड़ी को स्वीकृत किया गया और इसे उपयोग करने की प्रतिज्ञा की गई थी।" रेव्ह. डॉ. गाइल्स लिखते हैं: "इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता है कि बड़ी सँख्या में पुस्तकों को धोखा देने की तुलना में किसी अन्य दृष्टिकोण के साथ नहीं लिखा गया था।" प्रोफेसर रॉबर्टसन स्मिथ कहते हैं: "एक समूह के विचारों को पूरा करने के लिए बनाया गया नकली साहित्य एक विशाल मात्रा में उपलब्ध था।" आरम्भिक कलीसिया सन्देह से भरे हुए धार्मिक साहित्यों से भरी पड़ी थी। साहित्य की प्रचुरता से हमारे सुसमाचारों को याजकों के द्वारा चुना गया और उन्हें परमेश्‍वर के प्रेरित वचन के रूप में पुकारा गया। क्या ये सुसमाचार भी नकली थे? इसमें कोई निश्चितता नहीं है कि वे नहीं थे। परन्तु मुझे यह पूछने दीजिए : यदि मसीह एक ऐतिहासिक पात्र था, तब उसके अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए नकली दस्तावेजों को निर्मित करना क्यों आवश्यक था? क्या कभी किसी ने सोचा कि किसी व्यक्ति के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए नकली दस्तावेजों की रचना की जानी चाहिए जबकि वह व्यक्ति वास्तव में पहचाने हुए रूप में रहा हो? आरम्भिक मसीही विश्‍वासियों की नकलें मसीहियत के वाद की कमजोरी का एक सुदृढ़ प्रमाण है।

यह देखते हुए कि गूढ़ज्ञावादी अपने "सुसमाचारों" को आरम्भिक कलीसिया के मुख्य पात्रों जैसे पतरस, थोमा और मरियम मगदलीनी के नाम पर लिख रहे थे, एक व्यक्ति यह सोच सकता है कि यह उनके वाद को और अधिक महत्वपूर्ण बनाता है कि आरम्भिक कलीसिया विश्‍वासयोग्यता से अपने दस्तावेजों के नाम सही लोगों के ऊपर रख रही थी। क्यों किसी सुसमाचार को दूसरे-स्तर के लोगों जैसे मरकुस और लूका के नाम के पीछे लिखा गया? आखिरकार, आरम्भिक कलीसिया शीघ्रता से इस बात की पुष्टि करती है कि मरकुस ने अपनी बहुत सी जानकारियों को पतरस से प्राप्त किया था, इस कारण यदि यह प्रश्‍न विश्‍वसनीयता का है, तो क्यों नहीं इसे पतरस का ही लिखा हुआ होना कह दिया जाता है? इस लेख में इनमें से किसी का उल्लेख नहीं किया गया है। साथ ही, गूढ़ज्ञानवादी सुसमाचार यीशु के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए नहीं लिखे गए थे। इन्टरनेट धर्मनिन्दक पूर्ण रूप से गूढ़ज्ञानवाद की पृष्ठभूमि के प्रति किसी भी तरह कोई समझ या सराहना को और न ही इन दस्तावेजों को प्रसारित होने की पीछे दिए हुए किसी प्रासंगिक मसौदे को प्रदर्शित नहीं करते हैं। यहाँ तक कि चारों प्रामाणिक सुसमाचारों के लेखकों के सम्बन्ध में आरम्भिक कलीसिया में किसी तरह का कोई वास्तव में विवाद नहीं पाया जाता है। आरम्भिक कलीसिया के इतिहास से परिचित होने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह तर्क कदाचित् ही समझ में आता है।

एक धर्मनिन्दक क्या है? — मूर्तिपूजक धर्मों के साहित्य की "नकल" का दावा करना
इन्टरनेट धर्मनिन्दकों की वेबसाइट पर अक्सर एक दावा इस आरोप के साथ पाया जाता है कि मसीहियत विभिन्न मूर्तिपूजक धर्मों और पौराणिक कथाओं का एक अपनाया हुआ रूप है, यह एक ऐसा दावा है, जिसे बहुत पहले ही अधिकांश विद्वानों के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है। इस आरोप को ध्यान में रखते हुए, यह बात कोई अर्थ नहीं देती है कि क्यों एक निष्ठावान्, एकेश्‍वरवादी यहूदी, पलिश्तीनी संस्कृति के कारण आरोपित को मूर्तिपूजक "रहस्यमयी धर्मों" से दृष्टिकोणों को लेना पड़ा और इसके पश्चात् वह स्वयं यह घोषणा करते हुए अपनी मृत्यु मरा कि वे जिसे वे जानते थे, वह एक सम्पूर्ण षड़यन्त्र था।

तथापि, याकूब फिर भी "मसीह का कुवाँरी से जन्म और उसके बचपन के रहस्य" नामक पुस्तक में ऐसा लिखते हैं:

समय के व्यतीत होने के साथ यह देखा जा सकता था कि परमेश्‍वर के राज्य के आने में विलम्ब था। यूनानियों में से मन परिवर्तित हुए यहूदियों और यूनानी मूर्तिपूजकों में जो मसीहियत में मन परिवर्तन के ऊपर विचार कर रहे थे, इस देरी ने उत्तरों की अपेक्षा और अधिक प्रश्नों को प्रस्तुत कर दिया। इसके अतिरिक्त, यूनानी मूर्तिपूजकों, जिसमें से मसीहियत अपने लिए विश्‍वासियों को आकर्षित और उन्हीं ही के द्वारा आगे वृद्धि करने पर थी, स्वाभाविक रूप से किसी भी नए उद्धारकर्ता और उसके द्वारा किसी भी स्वर्गीय प्रतिफल की प्रतिज्ञा के दिए जाने के प्रति सन्देहवादी थे। इन यूनानियों को प्रचलित दर्जनों रहस्यवादी भ्रान्त शिक्षाओं और देवताओं में किसी एक को चुनना और अपनाना था, जो उस समय उठ खड़े होते हुए, इनमें से प्रत्येक जीवन उपरान्त स्वर्ग में शाश्‍वतकालीन हर्ष और आशीष को देने की प्रतिज्ञा कर रही थीं। यीशु के पास इन यूनानियों को देने के लिए बहुत ही कम था। सभी वृतान्तों में से वही केवल एक नाशवान् यहूदी मसीह था, जो केवल अब्राहम की सन्तान से ही बात कर रहा था और उन्हें प्रभु के मार्ग को तैयार करने के लिए कह रहा था, जो विशेष रूप से उसके चुने हुए लोगों के लिए नए यरूशलेम को निर्मित करेगा। मरकुस वाला यीशु जिसे उसके अनुयायियों के द्वारा पहली शताब्दी के उतरार्द्ध-के-मध्य में जाना गया (मत्ती, लूका और यूहन्ना के सुसमाचार से पहले) डायोनिसस या हेराकल्स देवताओं के समय-सम्मानित नैतिक-रक्षक देवताओं के गुणों में से किसी को भी साझा नहीं करता था। यीशु के साथ बाद में कुवाँरी-से होने वाली जन्म की विशेषता आवश्यक [थी] यदि यीशु को यूनानी संस्कृति प्रभावित संसार के लोगों के लिए स्वीकार्य होना था।

परन्तु तब, डायोनिसस से सम्बन्धित दो जन्मों में से कोई भी एक कुँवारी जन्म का सुझाव नहीं देता। एक पौराणिक कथा के अनुसार, डायोनिसस का जन्म ज्यूस और पर्सेफ़ोन से हुआ था। हेरा को अत्यधिक ईर्ष्या हो जाती है और वह शिशु को मार देने के प्रयास में टाइटन्स को भेजता है। ज्यूस उसके बचाव के लिए आता है, परन्तु बहुत अधिक देर हो जाती है। टाइटन्स डायोनिसस के हृदय को छोड़कर सब कुछ खा जाता है। ज्यूस तब उसके हृदय को ले लेता है और उसे शिमेले की गर्भ में रोपित कर देता है। दूसरी किंवदन्ति में, ज्यूस एक नश्‍वर स्त्री शिमेले को हेरा की ईर्ष्या के लिए गर्भ धारण करता है। हेरा शिमेले में निश्चत् रूप से उत्पन्न कर देती है कि वह ज्यूस को अपनी महिमा प्रकट करे, परन्तु, क्योंकि कोई भी प्राणी नश्‍वर प्राणी देवताओं को नहीं देख सकता और जीवित रह सकता है। शिमेले तुरन्त भस्म हो जाती है। ज्यूस तब भ्रूण डायनोसस को ले लेता है और उसे अपनी जांघ में तब तक रखता है, जब तक कि उसका जन्म नहीं हो जाता। जैसा कि हम देख सकते हैं, कुँवारी से कोई जन्म नहीं होता, अपितु, इस तरह डायनोसस को पुनर्जन्म का देवता कहा गया है, क्योंकि वह गर्भ से दो बार उत्पन्न हुआ है।

रिचर्ड कैरियर ने इस विषय पर कहीं और चर्चा करते हैं कि "यूनान के होरूस देवता को एक हज़ार वर्षों पहले शासन करने के रूप में वर्णित किया जाता है, तब वह मर जाता है, तब तीन दिनों के लिए गाड़ा जाता है, उस समय के अन्त में वह टायफोन, एक बुरे सिद्धान्त के ऊपर जय पाता और शाश्‍वतकाल के जीवन को यापन करने के लिए पुन: जीवत हो जाता है। परन्तु कैरियर गलत है। हम पुनरुत्थान के सम्बन्ध में होरूस देवता के लिए केवल एक ही सम्पर्क को स्थापित कर सकते हैं, यदि हम होरूस और ओसीरिस के अन्तिम विलय पर विचार करें। परन्तु इस तरह का दृष्टिकोण पूरी तरह से विरोधाभासों से भरा हुआ है, जिसे वास्तविक रूप में मिस्रियों के द्वारा देखा गया, क्योंकि उन्होंने बाद में विरोधाभासों को सही करने के लिए अपनी मान्यताओं में परिवर्तन कर लिया था। मिस्री कहानी में, ओसीरिस के अंगों को या तो युद्ध में टुकड़ों में बाँट दिया जाता है या उन्हें छाती को मुहरबन्द कर दिया जाता है या फिर नील नदी में डुबो दिया जाता है। आईसिस तब ओसीरिस के शरीर के टुकड़ों को एक साथ वापस ले आती है और ओसीरिस को एक उत्तराधिकारी की प्राप्ति के लिए पुनरुत्थित करती है, जो उसकी मृत्यु का बदला लेगा (यद्यपि, तकनीकी रूप से ओसीरिक कभी भी वास्तव में पुनरूत्थित नहीं हुआ था, क्योंकि उसे जीवितों के संसार में वापस लौट आने की मनाही थी)।

धर्मनिन्दकों की वैबसाइट मूर्तिपूजक देवताओं और मसीही विश्‍वासियों के ऊपर अन्य स्रोतों से अपनाई हुई "उधार" की सामग्री के सम्बन्ध में अक्सर आरोप लगाने के लिए गलत सूचनाओं के साथ तैयार की गई है। इस तरह का दावा अभी तक प्रमाणित नहीं हुआ है या यहाँ तक कि थोड़े से भी प्रमाण के द्वारा समर्थित नहीं है।

एक धर्मनिन्दक क्या है? — निष्कर्ष
इन्टरनेट धर्मनिन्दकों की वैबसाइट केवल पुराने षड्यन्त्रों से भरे हुए सिद्धान्तों के साथ-साथ झूठी गलत सूचनाओं और अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से भरी पड़ी है, जिनमें से लगभग सभों को विद्वानों की सामूहिक सहमति से त्याग दिया गया है। तथापि, धर्मनिन्दक निरन्तर इन्टरनेट पर सामग्री अध्ययन करने वालों की पर्याप्त मात्रा को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। इतिहास में बहुत ही थोड़ी ऐसी बातें हैं, जो निश्चित पाई जाती हैं, परन्तु साथ ही सन्देहवाद का ऐसा स्तर भी पाया जाता है, जो इतिहासकारों के कार्य को असम्भव बना देता है। इसके अतिरिक्त, यह विवेचना कि आरम्भिक कलीसिया ने प्राचीन मूर्तिपूजकों के धर्मों से सामग्री को उधार लेकर अपना लिया और यह कि यीशु का कभी अस्तित्व ही नहीं था, एक चयनात्मक सन्देह की मांग करता है, जिसके बारे में स्रोत विश्‍वसनीय हो और कैसे अन्य लोग इसकी व्याख्या ठीक से कर सकें। अन्त में, यदि इन्टरनेट धर्मनिन्दक अपने तर्क में सही हैं कि यीशु का कभी अस्तित्व ही नहीं था, तो यह मसीहियत को एक और अधिक अविश्‍वसनीय घटना बनाता है, इसकी अपेक्षा कि यदि वह अस्तित्व में रहा होता। जैसा कि भजनकार उचित ही यह गवाही देता है, "मूर्ख ने अपने मन में कहा है, 'कोई परमेश्‍वर है ही नहीं'" (भजन संहिता 14:1)।

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