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प्रश्न

हम दुर्व्यवहार करने वाले अभिभावक को कैसे सम्मान देते हैं?

उत्तर


मसीही विश्‍वासियों से पूछे जाने वाले सबसे कठिन प्रश्नों में से एक यह है कि दुर्व्यवहार करने वाले अभिभावक के सम्बन्ध में दस आज्ञाओं में से पाँचवीं आज्ञा को कैसे पूरा किया, जो माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहती है (निर्गमन 20:12)। यह कितना आसान होता यदि परमेश्‍वर ने केवल इतना ही कहा होता कि हमें केवल अपने माता-पिता का सम्मान तब करना है, जब वे अच्छे, दयालु और हमें प्रेम करें, परन्तु यह आज्ञा बिना किसी शर्त के केवल अपने पिता और माता का सम्मान करने के लिए कहती है। बहुत से ठेस खाए हुए और क्षति प्राप्त किए हुए लोग हैं, जिनके लिए इस आज्ञा को मानना लगभग असम्भव हैं।

शब्द "दुर्व्यवहार" की परिभाषा में व्यापक अर्थ पाए जाते हैं। एक बच्चे को अच्छे-कपड़ों और भोजन के साथ पालन-पोषण किया जा सकता है, जिसमें उसे प्रेम और स्वीकृति की सभी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को छोड़ बाकी अन्य की आपूर्ति की जाती है। उसे कभी भी कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुँचाया जाता है, तथापि, जैसा-जैसे वर्ष समाप्त होते जाते हैं, उसका आत्मा उसके भीतर ही भीतर अधिक सूखता चला जाता है, जैसे एक पौधे सूर्य के प्रकाश के बिना सूख जाता है, वैसे ही लगाव के प्रदर्शन की थोड़ी सी कमी से निराश, वह सामान्य वयस्क बन जाता है, तथापि अपने अभिभावकों की उदासीनता के कारण अपने ही भीतर से वह अपंग हो जाता है।

या एक बच्चे की आत्मा कम आयु में ही टूट सकती है — भले ही उसका कोई शारीरिक शोषण न किया गया हो, जब उसे निरन्तर यह कहा जाता रहा हो कि वह निकम्मा है, वह ऐसा व्यक्ति है, जो कि किसी भी काम का नहीं है। प्रत्येक कार्य जिसे वह करने का प्रयास करता है, उसके लिए उसकी खिल्ली तब तक उड़ाई जाती है, जब तक कि वह इसे करना बन्द नहीं कर देता है। क्योंकि बहुत ही छोटे बच्चे स्वाभाविक रूप से जो कुछ उनके अभिभावक उनके बारे बोलते हैं, उसके ऊपर विश्‍वास करते हैं, जो बच्चे इस तरह के व्यवहार का सामना करता है, वे धीरे-धीरे अपने में ही सीमित हो जाता है, वह एक अदृश्य दीवार के पीछे चला जाता है और जीवित रहने की अपेक्षा मात्र अस्तित्व में बने रहना चाहता है। ये वही बच्चे हैं, जो अपने माता-पिता के हाथों शारीरिक रूप से कभी भी पीड़ित नहीं होते हैं, परन्तु, फिर भी ये अपनी आत्माओं में अपंग हैं। उन्हें मित्र बनाना कठिन प्रतीत होता और वे सामान्य रूप से अन्य वयस्कों के साथ स्वयं को सम्बन्धित नहीं कर पाते हैं।

जो कुछ ऊपर वर्णित किया गया है, वह बच्चों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार अधिक सूक्ष्म रूप हैं। वास्तव में, दुर्व्यवहार के अधिक स्पष्ट प्रकार में ऐसे बच्चे पाए जाते हैं — जिन्हें उपेक्षित किया जाता, लातों से मारा और पीटा जाता है, और इससे भी बुरा स्वरूप यह कि उनके साथ यौन दुर्व्यवहार अर्थात् यौन उत्पीड़न किया जाता है। अब बड़ा प्रश्‍न हमारे सामने यह आता है: परमेश्‍वर के आदेश का पालन उन माता-पिता के सम्मान में कैसे किया जाए, जो अपने बच्चों के साथ ऐसी क्रूरता से व्यवहार करते हैं।

स्मरण करने वाली पहली बात यह है कि परमेश्‍वर हमारा प्रेमपूर्ण स्वर्गीय पिता है, जो केवल एक नियम ही नहीं बनाता है और तब हमारे द्वारा इसका पालन करने की प्रतीक्षा नहीं करता है, परन्तु उसके नियम हमारे भले के लिए हैं। यदि हम वास्तव में उसकी आज्ञा का पालन करना चाहते हैं, तो चाहे यह कितना भी असम्भव क्यों न लगे, वह मार्ग को खोजने में हमारी सहायता करने के लिए तैयार और उत्सुक है। सबसे पहले, निश्चित रूप से, हमें अपने स्वर्गीय पिता के साथ एक प्रेम से भरे हुए, विश्‍वास वाले सम्बन्ध को विकसित करना चाहिए, जो उन लोगों के लिए अत्यन्त कठिन हो सकता है, जिन्होंने कभी प्रेम और विश्‍वास ही नहीं किया है। ऐसी स्थिति में रहने वालों को सबसे पहले सबसे छोटे कदम को लेना चाहिए और अपने मनों को भीतर परमेश्‍वर से यह कहना चाहिए : "हे परमेश्‍वर, मैं आपको प्रेम करना और आपमें भरोसा करना चाहता हूँ — कृपया मेरी सहायता करें।" वह उत्तर देगा। वह केवल एक ही है जो भावनाओं और व्यवहारों को परिवर्तित कर सकता है और क्षतिग्रस्त सम्बन्धों और टूटे मनों में सुधार ला सकता है (लूका 4:18)।

एक बार उसके साथ हमारे सम्बन्ध के स्थापित होने के पश्चात्, हम आत्मविश्‍वास के साथ उसके पास जा सकते हैं और अपनी समस्याओं को उसे यह जानते हुए दे सकते हैं कि वह इन्हें सुनकर उत्तर देगा (1 यूहन्ना 5: 14-15)। इस तरह से उस पर भरोसा करने के लिए तैयार परमेश्‍वर की कोई भी सन्तान अपने मन में पवित्र आत्मा के कार्य को करने के भावों को समझ जाएगी। परमेश्‍वर उस मन को ले लेगा, जो एक उत्पीड़न से भरे हुए बचपन में से होकर जाने के द्वारा पत्थरीले मन में परिवर्तित हो गया है और उस मन को माँस और भावनाओं वाले मन में परिवर्तित होने के लिए अद्भुत बचाने वाले कार्य को आरम्भ करेगा (यहेजकेल 36:26)।

अगला कदम क्षमा करने के लिए तैयार होना है। यह बिल्कुल ही असम्भव प्रतीत होगा, विशेषकर उन लोगों के लिए, जो बहुत ही बुरे तरह के दुर्व्यवहार में से होकर गए हैं, परन्तु परमेश्‍वर के साथ सभी बातें सम्भव हैं (मरकुस 10:27)। कड़वाहट इन दु:ख से भरे पीड़ितों की आत्माओं में समाप्त हो जाएगी, तौभी, ऐसा कुछ भी नहीं जिसे पवित्र आत्मा नम्र न करे, यदि एक व्यक्ति इसे करने के लिए तैयार है। जो बात सबसे आवश्यक है, वह यह है कि दया के पिता के सामने प्रतिदिन की परिस्थितियों को ले आना चाहिए और उससे मानवीय दृष्टिकोण में होकर बात करनी चाहिए, यह सम्भव है कि इस तरह का दुष्टता से भरा हुआ व्यवहार, विशेषकर ऐसे अभिभावकों का जिन्हें बच्चों को प्रेम करने और पोषण करने के लिए सौंपा गया था, उन्हें कभी भी क्षमा किया जा सकता है।

परमेश्‍वर से क्षमा न करने में असमर्थ होने से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सच है कि क्षमा न करना पाप है, परन्तु यह केवल जानबूझकर न की जाने वाली क्षमा होती है, जहाँ पर हमने अपने मनों को कठोर कर लिया होता है और यह शपथ खाई होती है कि हम उन लोगों को कभी क्षमा नहीं करेंगे, जिन्होंने हमें बहुत बुरी तरह ठेस पहुँचाई है। परमेश्‍वर की सन्तान अपने पिता के पास ऐसा कुछ करने के लिए सहायता प्राप्त करने के लिए जाती है, जिसे उसने स्वयं कभी से नहीं किया होता है, वह परमेश्‍वर को क्रोधित, धमकाने वाले ईश्‍वर के रूप में, अपितु एक ऐसे पिता के रूप में नहीं पाएगा, जिसके पास अत्यधिक प्रेम, करुणा, दया, और सहायता देने की इच्छा से भरा हुए मन है।

एक बार जब पवित्र आत्मा हमारे मनों में चंगाई के कार्य को आरम्भ कर देता, तो हम अपने माता-पिता को एक भिन्न रूप में ही देखने लगते हैं। कदाचित् आत्मा यह प्रकट कर सकता है कि माता-पिता या उनमें से कम से कम एक के साथ भी बचपन में उसी तरह से व्यवहार किया गया था और या फिर उन्हें यह पता नहीं है कि उन्होंने हमारे साथ भावनात्मक रूप से क्या किया है, या फिर हमारे साथ किया हुआ उनका व्यवहार उनका बचपन से अब तक इकट्ठा किया हुआ क्रोध, जिसे हमारे ऊपर निकाल दिया गया है। यहाँ तक कि यदि उनके व्यवहार के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं है, तौभी परमेश्‍वर के लिए यह आवश्यक है कि हम उन्हें क्षमा करने में सहायता प्राप्त करने के लिए उसके पास जाएँ ताकि हमारे प्राण और आत्माएँ धीरे-धीरे कड़वाहट के जहर से भर न जाएँ।

उन लोगों की ओर से प्रमाण दिए गए हैं, जिन्होंने अपने माता-पिता से अविश्‍वसनीय क्रूरता और प्रेम की कमी का सामना किया था और तौभी उन्होंने — सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की दया और सामर्थ्य के ऊपर पूरी तरह से निर्भर रहना सीख लिया है — अब उन्होंने धीरे-धीरे उनके मनों में क्षमा और चंगाई को और अपने अभिभावकों के प्रति एक प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण को प्राप्त किया है। अपने अभिभावकों को परमेश्‍वर के हाथों में छोड़ देने से उन्होंने देखा कि उनके माता-पिता में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो गया है, और इस कहानी का वैभवशाली अन्त यह है कि एक प्रेम और एकता से भरा हुआ परिवार परमेश्‍वर की अधीनता में आ जाता है। इफिसियों 6:2-3 हमें कहता है कि, "अपने माता और पिता का आदर कर — यह पहली आज्ञा है जिसके साथ प्रतिज्ञा भी है — कि तेरा भला हो और तू धरती पर बहुत दिन जीवित रहे।"

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