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प्रश्न

क्यों एक अच्छा व्यक्ति होना स्वर्ग में जाने के लिए पर्याप्त नहीं है?

उत्तर


यदि आप अधिकांश लोगों से पूछे कि आपको स्वर्ग में जाने के लिए क्या करना होगा (मान लीजिए कि वे स्वर्ग में या मृत्यु के बाद के जीवन में विश्‍वास करते हैं), तो उनकी भारी प्रतिक्रिया किसी न किसी रूप में "अच्छा व्यक्ति के होने" होने में होगी। अधिकांश लोग, यदि नहीं, तो धर्म और सांसारिक दर्शन नैतिकता पर आधारित हैं। भले ही यह इस्लाम, यहूदी धर्म, या धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद ही क्यों न हो, सब की शिक्षा सामान्य है — कि स्वर्ग में जाना दस आज्ञाओं के आदेश को मानना या कुरान या स्वर्णिम नियम की धारणा का पालन करना एक अच्छे या भले व्यक्ति के होने का विषय है। परन्तु क्या ऐसा ही है, जिसे मसीह विश्‍वास शिक्षा देता है? क्या मसीह विश्‍वास भी विश्‍व के अन्य धर्मों में से मात्र एक धर्म है, जो यह सिखाता है कि एक अच्छा या भला व्यक्ति होना हमें स्वर्ग में ले जाएगा? आइए कुछ उत्तरों की प्राप्ति के लिए मत्ती 19:16-26 की जाँच करें; यह एक धनी युवक की कहानी है।

इस कहानी में पहली बात जिस पर हम ध्यान देते हैं, वह यह है कि धनी युवक सही प्रश्न को पूछ रहा है: "मैं कौन सा भला काम करूँ कि अनन्त जीवन पाऊँ?" इस प्रश्न को पूछने में, वह इस सच्चाई को स्वीकार करता है कि अब तक उनके सभी प्रयासों के पश्‍चात् भी उसमें कुछ कमी है, और वह जानना चाहता है कि अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए और क्या किया जाना चाहिए। यद्यपि, भले ही वह सही प्रश्न को पूछ रहा है, फिर भी वह गलत सांसारिक दृष्टिकोण — अर्थात् योग्यता ("मैं कौन सा भला काम करूँ...") से इसे पूछ रहा है; वह व्यवस्था के सच्चे अर्थ को समझने में असफल रहा है, क्योंकि यीशु उसे इसका उत्तर देगा, जो उसके लिए मसीह के दूसरे आगमन तक एक शिक्षक के रूप में कार्य करेगी (गलतियों 3:24)।

दूसरी ध्यान देने वाली बात यह है कि यीशु उसके प्रश्न के ऊपर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। यीशु बदले में उससे एक प्रश्न पूछता है: वह इस बात की पूछताछ क्यों कर रहा है कि भला क्या है? दूसरे शब्दों में, यीशु इस विषय की गहराई तक पहुँचने का प्रयास कर रहा है, अर्थात् कोई भी भला नहीं है और कोई भी परमेश्‍वर को छोड़कर भलाई नहीं करता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, मनुष्य झूठ के आधार के अधीन काम कर रहा है: यह कि एक व्यक्ति भला करने में सक्षम है और स्वर्ग में जाने के लिए अपने मार्ग को स्वयं कमा लेता है। अपनी बात को बताने के लिए, यीशु कहता है कि, यदि वह अनन्त जीवन चाहता है, तो उसे आज्ञाओं का पालन करना चाहिए। यह कहकर, यीशु कर्मों पर-आधारित धार्मिकता की वकालत नहीं कर रहा है। इसकी अपेक्षा, यीशु व्यवस्था और मानवीय क्षमता के प्रति मनुष्य की उथल-पुथल की समझ को दिखाकर युवक की क्षमताओं को चुनौती दे रहा है।

युवक की प्रतिक्रिया बहुत ही अधिक आश्‍चर्य से भरी रही। जब आज्ञाओं को मानने के लिए कहा गया, तो उसने यीशु से पूछा, "कौन सी आज्ञा?" यीशु ने धीरे से उस युवक को व्यवस्था की दूसरी तालिका अर्थात्, ऐसी आज्ञाएँ जो दूसरों के साथ हमारे सम्बन्धों की बात करती हैं, देकर उसके तरीकों की गलती को उसे दिखाया। जब वह यीशु को बताता है कि वह अपने बचपन से ही इन सभों का पालन करता आया है, तो आप उस युवक की प्रतिक्रिया में निराशा को लगभग समझ सकते हैं। यहाँ दो बातों को इंगित किया जा सकता है: सबसे पहले, युवक की प्रतिक्रिया में विडंबना पाई जाती है। यह कहने से कि वह अपने बचपन से इन सभी आज्ञाओं का पालन करता आया है, उसने झूठी गवाही न देने के बारे में दी हुई आज्ञा को तोड़ दिया है। यदि वह वास्तव में ईमानदार था, तो उसने कहा होता कि उसने आज्ञाओं का पालन अपने उत्तम प्रयास से किया है, वह दैनिक आधार पर विफल रहा है। उसके पास व्यवस्था की सतही समझ है और अपनी क्षमता के प्रति एक उच्च कोटि की सोच है। दूसरा, वह अभी भी जानता है कि वह पर्याप्त रूप में अच्छा नहीं है; वह यीशु से पूछता है, "अब मुझ में किस बात की घटी है?"

यीशु अब युवक की स्व-धार्मिकता का सामना करता है। वह उसे बताता है कि यदि वह सिद्ध होना चाहता है (अर्थात्, पूर्ण), तो उसे वह सब कुछ बेचना चाहिए, जो उसके पास है और उसके पीछे हो लेना चाहिए। यीशु ने पूरी तरह से मनुष्य की "घटी" का निदान किया है — जो उसकी सम्पत्ति के प्रति उसका लगाव है। उस व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पत्ति ही उसके जीवन में उसके लिए एक मूर्ति बन गई। उस ने सभी आज्ञाओं को पालन करने का दावा किया, परन्तु सच्चाई तो यह है कि वह व्यक्ति पहली आज्ञा का भी पालन नहीं कर पाया जो कि परमेश्‍वर के सामने किसी दूसरे को ईश्‍वर करके न मानने का है! युवक ने यीशु की ओर अपनी पीठ फेर ली और वहाँ से चला गया। उसका ईश्‍वर उसकी सम्पत्ति थी, जिसे उसने यीशु की तुलना में अधिक चुना।

यीशु अब अपने सिद्धान्तों को सिखाने के लिए अपने शिष्यों की ओर मुड़ जाता है: "तुमसे फिर कहता हूँ कि परमेश्‍वर के राज्य में धनवान के प्रवेश करने से ऊँट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है।" यह शिष्यों के लिए चौंकाने वाली बात थी, जिन्होंने सामान्य विचार को अपना रखा था कि धन परमेश्‍वर के आशीर्वाद का संकेत था। परन्तु यीशु ने आत्म-पर्याप्तता को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में अक्सर धन की बाधा को इंगित किया है। उसके शिष्य पूछते हैं, "फिर किसका उद्धार हो सकता है?" यीशु ने शिष्यों को स्मरण दिलाते हुए उत्तर दिया कि उद्धार परमेश्‍वर की ओर से है: "मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता, परन्तु परमेश्‍वर से सब कुछ हो सकता है।"

किसका उद्धार हो सकता है? यदि इसे केवल मनुष्य के ऊपर ही छोड़ दिया जाए, तो किसी का भी नहीं! क्यों एक मनुष्य का भला या अच्छा होना स्वर्ग में जाने के लिए पर्याप्त नहीं है? क्योंकि कोई भी व्यक्ति "अच्छा" नहीं है; केवल एक ही है, जो अच्छा है, और वह स्वयं परमेश्‍वर है। बाइबल कहती है कि सभी ने पाप किया है और परमेश्‍वर की महिमा से रहित हैं (रोमियों 3:23)। बाइबल यह भी कहती है कि हमारे पाप की मजदूरी मृत्यु है (रोमियों 6: 23अ)। सौभाग्य से, परमेश्‍वर ने तब तक प्रतिक्षा नहीं की जब तक कि हम किसी तरह से "अच्छा" होना नहीं सीखते हैं; जबकि हम अपनी पापी अवस्था में ही थे, तभी मसीह अधर्मियों के लिए मर गया (रोमियों 5:8)।

उद्धार हमारी भलाई के ऊपर आधारित नहीं है, अपितु यह यीशु की भलाई पर आधारित है। यदि हम अपने मुँह से अंगीकार करते हैं कि यीशु प्रभु है, और अपने मन में विश्‍वास करते हैं कि परमेश्‍वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो हम बच जाएँगे (रोमियों 10:9)। मसीह में उद्धार एक अनमोल वरदान है, और, सभी सच्चे वरदानों की तरह, इसे भी कमाया नहीं जा सकता है (रोमियों 6: 23ब; इफिसियों 2:8-9)। सुसमाचार का सन्देश यह है कि हम कभी भी स्वर्ग तक पहुँचने के लिए पर्याप्त रूप से अच्छे नहीं हो सकते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हम ऐसे पापी हैं, जो परमेश्‍वर की महिमा से रहित हो गए हैं, और हमें अपने पापों से पश्‍चाताप करना होगा और यीशु मसीह में अपने विश्‍वास और भरोसा को रखना होगा। केवल मसीह ही स्वर्ग को कमाने करने के लिए पर्याप्त रूप से अच्छा था, और वह उन लोगों को अपना धार्मिकता देता है, जो उनके नाम पर विश्‍वास करते हैं (रोमियों 1:17)।

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