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प्रश्न

क्या परमेश्‍वर में विश्‍वास बैसाखी की तरह है?

उत्तर


मिनिसोटा के पूर्व राज्यपाल जेसी वेंचुरा ने एक बार कहा था, "संगठित धर्म कमजोर-मन वाले लोगों के लिए बनावटी और बैसाखी की तरह है, जिन्हें सँख्या में सामर्थ्य की आवश्यकता होती है।" उनके साथ अश्लील सामग्री के लेखक लैरी फ्लेंट सहमत हैं, जिन्होंने ऐसे टिप्पणी दी है, "इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जिस से मैं कहूँ कि यह [धर्म] अच्छा है। लोग इसे एक बैसाखी के रूप में उपयोग करते हैं।" टेड टर्नर ने एक बार ऐसे कहा था, "मसीहियत एक ऐसा धर्म है, जो पराजित होने वालों के लिए है!" वेंचुरा, फ्लेंट, टर्नर, और अन्य लोग जो ऐसा सोचते हैं, उनका दृष्टिकोण यह है कि मसीही विश्‍वासी भावनात्मक रूप से कमजोर हैं और जो जीवन के द्वारा काल्पनिक समर्थन को प्राप्त करने की आवश्यकता को चाहते हैं। उनका कटाक्ष यह है कि वे स्वयं सामर्थी हैं और उन्हें अपने जीवन की सहायता के लिए किसी भी सम्भावित परमेश्‍वर की कोई आवश्यकता नहीं है।

इस तरह के कथन प्रश्नों की एक बड़ी गिनती को खड़ा कर देते हैं : कहाँ से इस तरह की विचारधारा का आरम्भ हुआ? क्या इसमें कोई सत्य है? और इस तरह के कथनों के प्रति बाइबल किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करती है?

क्या परमेश्‍वर में विश्‍वास करना एक बैसाखी की तरह है? फ्रायड का प्रभाव
सिगमंड फ्रायड (1856-1939) एक ऑस्ट्रियन न्यूरोलॉजिस्ट अर्थात् स्नायु-विशेषज्ञ थे, जिन्होंने मनोविश्लेषण की प्रथा की स्थापना की थी, यह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो इस बात का समर्थन करता है कि अचेतन मनोवृत्ति में मनुष्य के व्यवहार को अधिकांश अपने नियन्त्रण में रखता है। यद्यपि, नास्तिकता का नायक बनते हुए, फ्रायड ने यह स्वीकार किया कि धर्म के सत्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है और धार्मिक विश्‍वास ने इतिहास के असँख्य लोगों के लिए विश्राम प्रदान किया है। तथापि, फ्रायड ने यह सोचा कि परमेश्‍वर की अवधारणा भ्रम है। अपने धार्मिक लेखन कार्यों में से एक, भ्रम के भविष्य में उन्होंने ऐसे लिखा, "वे [विश्‍वासी] 'परमेश्‍वर' का नाम किसी एक ऐसी अस्पष्ट अमूर्त को देते हैं, जिसे उन्होंने स्वयं के लिए रचा हुआ है।"

इस तरह के भ्रम को उत्पन्न करने की प्रेरणा के रूप में, फ्रायड ने दो मूलभूत बातों के ऊपर विश्‍वास किया: (1) विश्‍वास करने वाले लोग एक ऐसे ईश्‍वर को सृजित करते हैं, क्योंकि उनके भीतर दृढ़ इच्छा और आशा होती है, जो उनमें जीवन की कठोरता का सामना करके विश्राम प्रदान करती है; ईश्‍वर के होने का विचार एक सुखद जीवन शैली के लिए आदर्शमयी पिता की आवश्यकता से आता है, जो कि एक धार्मिक-मन वाले व्यक्ति के जीवन में एक अस्तित्व-हीन या अपूर्ण रूप से वास्तविक पिता को ग्रहण करने के द्वारा आता है। धर्म में इच्छा-पूर्ति के लिए कारक की बात करते हुए फ्रायड ने लिखा है, "वे [धार्मिक मान्यताएँ] भ्रम हैं, मानव जाति की सबसे पुरानी, सबसे दृढ़, और सबसे आवश्यक इच्छाओं की पूर्ति हैं। हम मान्यता को तब एक भ्रम कहते हैं, जब इच्छा-शक्ति अपनी प्रेरणा में एक प्रमुख कारक होती है और ऐसा करने से हम वास्तविकता के सम्बन्धों की उपेक्षा करते हैं, जैसा कि भ्रम स्वयं सत्यापन के द्वारा किसी मूल्य को स्थापित नहीं करता है।"

क्योंकि फ्रायड के लिए, परमेश्‍वर एक मनोवैज्ञानिक आत्म-साकार से ज्यादा कुछ भी नहीं था, जो एक व्यक्ति को उस वास्तविकता से बचाने की ढाल बन जाता है, जिसका वह सामना करना नहीं चाहता था और जिसके साथ वह स्वयं नहीं चल सकता था। फ्रायड के पश्चात् अन्य वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने उसी ही बात पर महत्व दिया और कहा कि धर्म केवल मन का एक भ्रम/धोखा है। एक अमेरिकी लेखक और दार्शनिक रॉबर्ट पिरसिंग, जो फ्रायड के अनुयायियों को विशिष्टता प्रदान करता है, ने कहा है, "जब एक व्यक्ति भ्रम से पीड़ित होता है, तब उसे पागलपन कहा जाता है। जब कई लोग भ्रम से पीड़ित हो जाते हैं, तब इसे धर्म कहा जाता है।"

ऊपर दिए हुए दोषों के बारे में क्या कहा जाए? क्या फ्रायड और अन्यों के द्वारा पुष्टि किए जाने वाले किसी सत्य को दिया गया है?

"बैसाखी आधारित भीड़" के दावों की जाँच करना
इन दावों की एक निष्ठा के साथ जाँच करते समय, स्वीकार करने वाली पहली बात यह है कि जो लोग यह दावा करते हैं, वे स्वयं के बारे में कैसा दावा कर रहे हैं। धर्म के ऊपर कटाक्ष करने वाले कह रहे हैं कि मसीही विश्‍वासी मनोवैज्ञानिक और स्वयं की इच्छा-की-पूर्ति करने वाले सत्य हैं, और यह कि ऐसा उन सन्देहवादियों के साथ नहीं है। परन्तु वह ऐसा कैसे जानते हैं? उदाहरण के लिए, फ्रायड ने एक पिता परमेश्‍वर की आवश्यकता को भावनात्मक रूप से आवश्यकता में पड़े हुए लोगों की पूर्ति के रूप में पिता की इच्छा के होने के बारे में देखा, परन्तु, क्या यह हो सकता है कि फ्रायड के पास स्वयं के लिए पिता के अस्तित्व को होने की भावनात्मक आवश्यकता नहीं थी? और कदाचित् फ्रायड की इच्छा-पूर्ति की अवधारणा को कार्य करना इस धारणा में प्रदर्शित हुआ कि उसे एक पवित्र परमेश्‍वर और मृत्यु के पश्चात् वाले अस्तित्व में न्याय नहीं चाहिए था, न ही नरक के अस्तित्व की वास्तविक इच्छा उसमें थी। इस तरह की सोच की मनोवृत्ति को प्रदर्शित स्वयं फ्रायड का लेखनकार्य करता है, जिसमें उसने एक बार ऐसे कहा था, "विशेष रूप से मेरे लिए इसका बुरा अंश इस तथ्य में निहित है कि सभी वस्तुओं का विज्ञान ईश्‍वर के अस्तित्व के होने की मांग करता है।"

यह निष्कर्ष निकालना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि फ्रायड और उनके अनुयायियों ने अपने दृष्टिकोण में यह तर्क दिया है कि इसका एकमात्र तरीका यही है कि किसी व्यक्ति को स्पष्ट प्रमाणों की "मांगों" की प्राप्ति के जय को प्राप्त कर सकता है, यदि उसमें एक भ्रामक आशा को उत्पन्न कर दिया जाए, जो कि ईश्‍वर की उपस्थिति की पुष्टि को प्रमाणित कर दे और तौभी वे इसे अपने लिए एक सम्भावना के रूप में विचार नहीं करते हैं। कुछ नास्तिकों ने, यद्यपि, निष्ठा के साथ और खुले रूप में इस सम्भावना को स्वीकार कर लिया है। एक उदाहरण को प्रस्तुत करते हुए, नास्तिक प्रोफेसर/दार्शनिक थॉमस नागेल ने एक बार कहा था, "मैं नास्तिकता को सच मानता हूँ और इस तथ्य से असहजता को महसूस करता हूँ कि कुछ बुद्धिमान और सुविख्यात लोगों को मैं जानता हूँ, जो धार्मिक रूप से विश्‍वासी हैं। बात केवल इतनी ही नहीं है कि मैं ईश्‍वर पर विश्‍वास नहीं करता और स्वाभाविक रूप से आशा करता हूँ कि मैं अपने विश्‍वास में सही हूँ। बात यह है कि मुझे आशा है कि कोई ईश्‍वर नहीं है! मैं नहीं चाहता कि कहीं एक परमेश्‍वर हो; मैं नहीं चाहता कि ब्रह्माण्ड ऐसा ही हो।"

विचार करने के लिए एक और तथ्य यह है कि मसीही विश्‍वास के सभी पहलुओं को शान्ति प्रदान करने वाले नहीं है। उदाहरण के लिए, नरक का सिद्धान्त, मानव जाति को पापियों के रूप में स्वीकार करना, जो स्वयं से परमेश्‍वर को प्रसन्न करने में असमर्थ हैं, और इस जैसी अन्य गर्माहट और अस्पष्टता से भरी हुई अन्य शिक्षाओं का होना। फ्रायड इन सिद्धान्तों की सृष्टि की व्याख्या कैसे करते हैं?

एक अतिरिक्त विचार उपरोक्त प्रश्‍न में से उठ खड़ा होता है कि यदि मनुष्य ने स्वयं को अच्छा महसूस करने के लिए ईश्‍वर की अवधारणा को अविष्कृत किया है, तब क्या लोग एक ऐसे परमेश्‍वर की सृष्टि करेंगे जो स्वयं में पवित्र है? इस तरह का परमेश्‍वर लोगों की स्वाभाविक इच्छाओं और प्रथाओं के साथ बाधाओं को उत्पन्न करता हुआ प्रतीत होता है। सच्चाई तो यह है कि इस तरह का परमेश्‍वर एक सबसे अन्तिम तरह का ईश्‍वर होगा, जिसे उन्होंने कभी अविष्कृत किया हो। इसकी तुलना, लोग ऐसे परमेश्‍वर को निर्मित करने की अपेक्षा करेंगे जो उनकी उन बातों के साथ सहमत हों, जिन्हें वे अपने स्वभाव के अनुसार करना चाहते हैं, इसकी अपेक्षा कि वह उनकी प्रथाओं का विरोध करे, जिन्हें वे स्वयं (कुछ कारणों से जिनकी अभी भी व्याख्या होनी बाकी है) "पाप से भरी" हुई गतिविधियों के रूप में चिन्हित करते हैं।

एक अन्तिम प्रश्‍न कि "बैसाखी" वाले दावे कैसे यह व्याख्या करते हैं कि लोग किस प्रकार आरम्भ में ही धर्म के प्रति विरोधी थे और उसमें विश्‍वास नहीं करना चाहते थे? इस तरह के लोगों के पास सम्भवत: मसीहियत के सच्चे होने प्रति किसी तरह की कोई इच्छा या आशा नहीं थी, तथापि, एक सच्ची जाँच के प्रमाण और इसकी "वास्तविकता" की पहचान के पश्चात्, वे विश्‍वासी बन जाते हैं। अंग्रेजी विद्वान सी. एस. लुईस एक ऐसे ही व्यक्ति हैं। लुईस अपनी इस बात को कहने के लिए प्रसिद्ध हैं कि इंग्लैंड के सभी स्थानों में उन्हें छोड़ कोई भी उनसे अधिक अनिच्छुक रूप से मन परिवर्तित करने वाला व्यक्ति नहीं था कि वह वास्तव इसकी ओर खींचते और विश्‍वास में चिल्लाते हुए जा रहे थे, जो कदाचित् ही एक ऐसा कथन है, जिसे कोई एक स्वयं की इच्छा-पूर्ति की कल्पना में लगे हुए किसी व्यक्ति से प्राप्त करने की अपेक्षा होगी।

ये विषय और प्रश्‍न "बैसाखी" का सहारा लेने वाली भीड़ के दावों के प्रति बाधाओं को उत्पन्न करती हैं, जिन्हें आसानी से उन लोगों के द्वारा उपेक्षित किया जाता है। परन्तु, उनके दावों के बारे में बाइबल क्या कहती है? यह उनके आरोपों का उत्तर कैसे देती है?

क्या परमेश्‍वर में विश्‍वास बैसाखी की तरह है? — बाइबल इसके प्रति कैसे प्रतिक्रिया देती है?
तीन मुख्य प्रतिक्रियाएं हैं, जिन्हें बाइबल इन दावों के प्रति करती है कि लोगों ने परमेश्‍वर के विचार को स्वयं के लिए बैसाखी के रूप में आविष्कृत किया है। सबसे पहले, बाइबल कहती है कि ईश्‍वर ने लोगों को उसके स्वयं के लिए सृजा है और मानव जाति को उसके साथ सम्बन्ध बनाने की इच्छा से स्वाभाविक रूप से तैयार किया है। इस तथ्य के प्रति, अगस्टीन ने ऐसे लिखा है, "हे परमेश्‍वर, तूने हमें अपने स्वयं के लिए सृजा है, और हमारे मन तब तक अशान्त हैं, जब तक वे तुझ में आराम नहीं पाते।" बाइबल कहती है कि परमेश्‍वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप पर सृजा है (उत्पत्ति 1:26)। सत्य के होने के कारण, क्या यह विश्‍वास करना तर्कसंगत नहीं है कि हम ईश्‍वर की प्राप्ति की चाह को महसूस करते हैं, क्योंकि उसने हम इसी इच्छा के साथ उत्पन्न किया है? क्या कोई अलौकिक आकृति और सृष्टिकर्ता और सृष्टि के मध्य सम्बन्धों की सम्भावना का अस्तित्व विद्यमान नहीं है?

दूसरा, बाइबल कहती है कि लोग वास्तव में फ्रायड और उनके अनुयायियों के द्वारा दावा करने वाली बात से उल्टे ही तरीके में कार्य करते हैं। बाइबल कहती है कि मनुष्य परमेश्‍वर के विरूद्ध विद्रोह में है और स्वाभाविक रूप से उसे प्राप्त करने की इच्छा की अपेक्षा उसे दूर करने की इच्छा रखती है, और यह कि इस तरह की अस्वीकृति परमेश्‍वर के क्रोध को उनके ऊपर ले आती है। वास्तविकता यह है कि लोग परमेश्‍वर के सत्य की सभी बातों को स्वाभाविक रूप से दबाते हैं, यह कुछ ऐसी बात है, जिसके बारे में पौलुस ऐसे लिखता है: "परमेश्‍वर का क्रोध तो उन लोगों की सब अभक्ति और अधर्म पर स्वर्ग से प्रगट होता है, जो सत्य को अधर्म से दबाए रखते हैं। इसलिये कि परमेश्‍वर के विषय का ज्ञान उनके मनों में प्रगट है, क्योंकि परमेश्‍वर ने उन पर प्रगट किया है। उसके अनदेखे गुण, अर्थात् उस की सनातन सामर्थ्य, और परमेश्‍वरत्व, जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते है, यहाँ तक कि वे निरूत्तर हैं। इस कारण कि परमेश्‍वर को जानने पर भी उन्होंने परमेश्‍वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया, परन्तु व्यर्थ विचार करने लगे, यहाँ तक कि उन का निर्बुद्धि मन अन्धेरा हो गया। वे अपने आप को बुद्धिमान जताकर मूर्ख बन गए" (रोमियों 1:18–22)। सच्चाई यह है कि परमेश्‍वर सारी सृष्टि में स्पष्ट रूप से प्रमाणित है, जैसा कि पौलुस के शब्दो में कहा गया है, जिसे सी. एस. लुईस के द्वारा बड़ी अच्छी तरह से सारांशित कर दिया गया है, जिन्होंने ऐसे लिखा है, "हम अनदेखा कर सकते हैं, परन्तु हम परमेश्‍वर की उपस्थिति से कहीं भी बच नहीं सकते हैं। संसार उसकी उपस्थिति से भरा पड़ा है।"

फ्रायड ने स्वयं स्वीकार किया है कि धर्म "शत्रु" था, और सटीकता के साथ ऐसा ही है कि जिसमें परमेश्‍वर स्वयं को मनुष्य के सामने — परमेश्‍वर के शत्रु के रूप में उसकी आत्मा के जागृत होने से पहले चित्रित करता है। यह कुछ ऐसी बात है, जिसे पौलुस स्वीकार करता है : "क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्‍वर के साथ हुआ, तो फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?" (रोमियों 5:10, शब्दों को विशेषता देने के लिए मोटा किया गया है)।

तीसरा, बाइबल स्वयं कहती है कि जीवन कठिन है, कठिनाइयां सामान्य हैं और हम सभों के द्वारा मृत्यु के भय को अनुभव किया जाता है। ये ऐसे सत्य हैं, जिन्हें बड़ी आसानी के साथ हमारे चारों ओर के संसार में देखा जाता है। बाइबल साथ ही यह कहती है कि परमेश्‍वर कठिनाइयों में हमारी सहायता करने के लिए उपस्थित है और हमें आश्‍वस्त करता है कि यीशु ने मृत्यु के भय पर जय को प्राप्त कर लिया है। स्वयं यीशु ने कहा है, "संसार में तुम्हें क्लेश होता है," जो इस तथ्य के बारे में बोलता है कि इस जीवन में कठिनाइयों विद्यमान हैं, परन्तु उसने यह भी कहा है, "ढाढ़स बाँधो" और अपने शिष्यों से कहा कि अन्तिम रूप से जय पाने के लिए उसकी ओर देखें (यूहन्ना 16:33)।

बाइबल कहती है कि परमेश्‍वर उन लोगों की चिन्ता और सहायता करता है और यह कि वह उसका अनुसरण करने वालों को एक दूसरे की सहायता करने के लिए और दूसरे के बोझ को उठाने का आदेश भी देता है (गलातियों 6:2 के साथ तुलना करें)। लोगों के लिए परमेश्‍वर की चिन्ता को बोलते हुए, पतरस लिखता है, "इसलिये परमेश्‍वर के बलवन्त हाथ के नीचे दीनता से रहो, जिस से वह तुम्हें उचित समय पर बढ़ाए। अपनी सारी चिन्ता उसी पर डाल दो, क्योंकि उस को तुम्हारा ध्यान है" (1 पतरस 5:6-7, शब्दों को विशेषता देने के लिए मोटा किया गया है)। यीशु का प्रसिद्ध कथन भी इसी तथ्य को बोलता है: "हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूँ : और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है" (मत्ती 11:28–30)।

प्रतिदिन की सहायता के अतिरिक्त, मृत्यु के भय के ऊपर भी मसीह ने जय प्राप्त कर ली है। अपने पुनरुत्थान के द्वारा, यीशु ने प्रमाणित कर दिया है कि मृत्यु की उसके ऊपर कोई जय नहीं हैं, और परमेश्‍वर का वचन कहता है कि मसीह का पुनरुत्थान उन सभों के लिए पुनरुत्थान और शाश्‍वतकालीन जीवन के लिए प्रमाण है, जो उसके ऊपर विश्‍वास करते हैं (1 कुरिन्थियों 15:20 के साथ इसकी तुलना करें)। मृत्यु के भय से छुटकारा एक ऐसा सत्य है, जिसे इब्रानियों के लेखक के द्वारा उदघोषित किया गया है, जिसने ऐसे कहा है, "इसलिये जब कि लड़के मांस और लहू के भागी हैं, तो वह [यीशु] आप भी उनके समान उनका सहभागी हो गया; ताकि मृत्यु के द्वारा उसे जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली थी, अर्थात् शैतान को निकम्मा कर दे; और जितने मृत्यु के भय के मारे जीवन भर दासत्व में फँसे थे, उन्हें छुड़ा ले" (इब्रानियों 2:14–15, शब्दों को विशेषता देने के लिए अक्षरों को मोटा किया गया है)।

इस तरह से, वास्तव में, बाइबल, परमेश्‍वर की देखभाल, चिन्ता और सृष्टि के लिए उसकी सहायता के बारे में बोलती है। इस तरह की सच्चाई से वास्तव में शान्ति मिलती है, परन्तु यह एक ऐसी शान्ति है, केवल इच्छा-की-पूर्ति की इच्छा पर नहीं, अपितु वास्तविकता पर आधारित है।

क्या परमेश्‍वर में विश्‍वास बैसाखी की तरह है? — निष्कर्ष
जेसी वेंचुरा गलत थे, जब उन्होंने यह कहा कि धर्म एक बैसाखी से ज्यादा बढ़कर कुछ नहीं है। इस तरह के एक कथन मनुष्य के घमण्डी स्वभाव के बारे में बात करता है और उन लोगों के प्रकार का वर्णन करता है, जिन्हें यीशु ने प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में ताड़ना दी है : "तू कहता है कि 'मैं धनी हूँ और धनवान हो गया हूँ और मुझे किसी वस्तु की घटी नहीं'; और यह नहीं जानता कि तू अभागा और तुच्छ और कंगाल और अंधा और नंगा है" (प्रकाशितवाक्य 3:17)।

फ्रायड, वेंचुरा और अन्यों के द्वारा किए हुए इच्छा-की-पूर्ति के वायदे केवल स्वयं के ही विरूद्ध अभियोग के रूप में कार्य करते हैं और अपने जीवन के प्रति अपने ईश्‍वर और अपने दावे को अस्वीकार करने की अपनी इच्छा का प्रदर्शन करते हैं, जिसे कि वास्तव में बाइबल में पतित हो चुके मनुष्य के बारे में बताया गया है। परन्तु इन्हीं ही लोगों से, परमेश्‍वर कहता है कि वे अपनी सच्ची इच्छाओं की पहचान कर लेते हैं और स्वयं को मानवतावदी की झूठी आशा के स्थान पर दे देते हैं, जिन्हें वे थामे हुए हैं।

मसीह के पुनरुत्थान के तथ्यों और प्रमाणों के बारे में बाइबल के वक्तव्य में सांत्वना और वास्तविक आशा- ऐसी आशा आती है, जो निराश नहीं करती — और हमें ऐसे तरीके से चलने के लिए निर्देश देती है, जो परमेश्‍वर पर भरोसा करते हैं और हमारी उसके सामने अपनी "निर्बल" अवस्था की पहचान करते हैं। जब एक बार ऐसा हो जाता है, तब हम वैसे ही दृढ़ हो जाते हैं, जैसे पौलुस ने कहा था, "क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूँ, तभी बलवन्त होता हूँ" (2 कुरिन्थियों 12:10)।

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