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प्रश्न

क्या परमेश्वर को क्रोध आता है?

उत्तर


यह पवित्रशास्त्र के उन सन्दर्भों को अनदेखा करना मूर्खता होगा जो परमेश्वर के क्रोध के बारे में बात करते हैं। हाँ, परमेश्वर को क्रोध अर्थात् गुस्सा आता है; इस के लिए बाइबल में कई उदाहरण पाए जाते हैं। वह “ऐसा ईश्‍वर है जो प्रतिदिन क्रोध करता है” (भजन संहिता 7:11)।

यद्यपि, हमें अपने स्वयं के मानवीय अनुभवों की भावना के साथ परमेश्वर के क्रोध की बराबरी नहीं करनी चाहिए। हमें एक बार फिर से बाइबल पर ध्यान देना चाहिए। इफिसियों 4:26–27 हमें बताता है कि क्रोध का अनुभव किया जाना सम्भव है, परन्तु पाप का नहीं। जैसा कि परमेश्वर पाप नहीं कर सकता है, हम जानते हैं कि उसका क्रोध धार्मिकता से भरा हुआ है, यह हमारे स्वयं के क्रोध के सामान्य अनुभव के विपरीत है। जैसा कि याकूब 1:20 कहता है कि, “मनुष्य का क्रोध परमेश्‍वर के धर्म का निर्वाह नहीं कर सकता।”

वचनों के सन्दर्भ से परमेश्वर के क्रोधित होने का पता चलता है कि वह क्यों क्रोधित होता है। उसके चरित्र का उल्लंघन होने पर परमेश्वर क्रोधित हो जाता है। परमेश्वर धर्मी, न्यायी और पवित्र है, और इन गुणों में से किसी के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है (निर्गमन 20:4-6; यशायाह 42:8)। परमेश्‍वर प्रत्येक उस समय इस्राएल जाति और इस्राएल के राजाओं के प्रति क्रोधित रहा, जब वे उसकी आज्ञा पालन करने से पीछे हटते थे (उदाहरण के लिए देखिए, 1 राजा 11:9-10; 2 राजा 17:18)। कनान में पाई जाने वाली जातियों में दुष्टता से भरी हुई प्रथाएँ थीं, जैसे कि बच्चों का बलिदान किया जाना और यौन सम्बन्धों में भ्रष्टता, इस बात से परमेश्वर का क्रोध भड़क उठता है कि वह इस्राएल को पूरी तरह से — प्रत्येक पुरुष, स्त्री, बच्चे और जानवर के साथ — नष्ट करने की आज्ञा दे ताकि भूमि से दुष्टता दूर हो सके (व्यवस्थाविवरण 7:1-6)। जिस तरह एक माता-पिता अपने बच्चों को चोट पहुँचाने वाली किसी भी चीज़ के ऊपर क्रोधित हो जाते हैं, उसी तरह परमेश्वर का क्रोध उस पर निर्देशित होता है जो उसके लोगों और उसके साथ उनके सम्बन्ध को नुकसान पहुँचाता है। “‘परमेश्‍वर यहोवा की यह वाणी है,’ मेरे जीवन की सौगन्ध, ‘मैं दुष्‍ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न नहीं होता, परन्तु इससे कि दुष्‍ट अपने मार्ग से फिरकर जीवित रहे’’’ (यहेजकेल 33:11)।

नए नियम में, यीशु उसके दिनों के धार्मिक गुरुओं और अगुवों के ऊपर अपने स्वयं के लाभ के लिए धर्म का उपयोग करने और लोगों को बन्धन में रखने के लिए क्रोधित हो गया था (यूहन्ना 2:13-16; मरकुस 3:4-5)। रोमियों 1:18 हमें परमेश्वर के क्रोध, या गुस्से के बारे में बताता है, जो “लोगों की सब अभक्‍ति और अधर्म पर स्वर्ग से प्रगट होता है, जो सत्य को अधर्म से दबाए रखते हैं।” इसलिए परमेश्वर लोगों की दुष्टता के विरूद्ध क्रोधित हो जाता है, और उस दुष्टता का विरोध करता है ताकि लोग अपनी बुराई से मुड़ें, जिससे कि उन्हें सच्चा जीवन और स्वतन्त्रता मिल सके। यहाँ तक कि उसके क्रोध में भी, परमेश्वर की प्रेरणा लोगों के लिए प्रेम है; उस सम्बन्ध को बहाल करने के लिए है जिसे पाप ने नष्ट कर दिया है।

जबकि परमेश्वर को पाप के प्रति न्याय और प्रतिशोध लाना चाहिए, तथापि जिन्होंने यीशु को परमेश्वर और उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार किया है वे अब पाप के लिए परमेश्वर के क्रोध के अधीन नहीं हैं। क्यों? क्योंकि यीशु ने क्रूस पर परमेश्वर के क्रोध के पूर्ण माप का अनुभव किया ताकि हम उसके क्रोध ने नीचे न आएँ। यीशु की मृत्यु का अर्थ “प्रायश्चित,” या सन्तुष्टि है। “अत: अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं। क्योंकि वे शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं। क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतन्त्र कर दिया। क्योंकि जो काम व्यवस्था शरीर के कारण दुर्बल होकर न कर सकी, उस को परमेश्‍वर ने किया, अर्थात् अपने ही पुत्र को पापमय शरीर की समानता में और पापबलि होने के लिये भेजकर, शरीर में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी। इसलिये कि व्यवस्था की विधि हममें जो शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं, पूरी की जाए।”(रोमियों 8:1-4)।

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