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प्रश्न

'जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो' एक बाइबल आधारित कथन है?

उत्तर


"जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो," सामान्य रूप से "सुनहरे नियम" के रूप में जाना जाता है, यह वास्तव में एक बाइबल आधारित सिद्धान्त है। लूका 6:31 यीशु को यह कहते हुए लिपिबद्ध करता है कि, "जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो।" यह कथन यीशु के द्वारा हमारे शत्रुओं से प्रेम करने के बारे में एक शिक्षा देने के सन्दर्भ में पाया जाता है। यीशु लोगों के द्वारा व्यवहार किए जाने वाले पारम्परिक तरीके कुछ के बदले में कुछ में भारी परिवर्तन करता है (देखें मत्ती 5:38-48)। दूसरों के साथ वैसा करने की अपेक्षा कि उन्होंने हमारे साथ क्या किया है या उनके साथ वैसा किया जाए जिसके वे योग्य हैं, हमें उनके साथ वैसे ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि वे हमारे साथ व्यवहार करें।

मत्ती 7:12 में यीशु कहता है कि, "इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो; क्योंकि व्यवस्था और भविष्यद्वक्‍ताओं की शिक्षा यही है।" इस प्रकार सुनहरा नियम सदैव से ही बाइबल के सन्देश का मूल अंश रहा है। बाद में मत्ती में, जब उससे पूछा गया कि सबसे बड़ी आज्ञा क्या है, तो यीशु ने उत्तर दिया कि, ''तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएँ सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्‍ताओं का आधार हैं” (मत्ती 22:37-40)। अपने पकड़वा दिए जाने वाली रात, यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था कि, “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूँ कि एक दूसरे से प्रेम रखो; जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। यदि आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:34-35)। हमारे लिए यीशु का प्रेम सिद्ध, अपरिवर्तनीय और स्वयं-बलिदान से भरा हुआ है। दूसरों को प्रेम करने की हमारी क्षमता यीशु के आदेश से उसके प्रेम में हमारे अनुभव और पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से आती है।

दूसरों से सर्वोत्तम रीति से प्रेम करने का एक व्यावहारिक तरीका यह है कि आप उनकी परिस्थितियों में स्वयं की कल्पना करें। जब हम यह सोचने के लिए रुकते हैं कि हम एक निश्‍चित परिस्थिति में कैसे व्यवहार कर सकते हैं, तो हम वास्तव में उस परिस्थिति में रहने वालों के लिए सहानुभूति का निर्माण करते हैं। क्या हम स्वयं के प्रति प्रेम और सम्मान के व्यवहार को चाहते हैं? तब तो हमें इसी उपहार को दूसरों को देना चाहिए।

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