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प्रश्न

क्या पाप की सृष्टि परमेश्वर ने की है?

उत्तर


परमेश्वर ने छह दिनों में ब्रह्माण्ड को रचा, परन्तु, मूल रूप से, ब्रह्माण्ड में कोई पाप नहीं था — उसने जो कुछ भी बनाया था वह “बहुत अच्छा” था (उत्पत्ति 1:31)। पाप ने परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह की एक गतिविधि के कारण ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया, इसलिए नहीं कि परमेश्वर ने पाप को रचा है।

हमें “पाप” को परिभाषित करने की आवश्यकता है। पहला यूहन्ना 3:4 कहता है कि, “जो कोई पाप करता है, वह व्यवस्था का विरोध करता है; और पाप तो व्यवस्था का विरोध है।” पाप, इसलिए, परमेश्वर की पवित्र व्यवस्था के प्रति किसी भी तरह का उल्लंघन है। रोमियों 3:23 कहता है कि, “इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्‍वर की महिमा से रहित हैं।” इस वचन के अनुसार, पाप कोई भी ऐसी बात (शब्द, विचार, गतिविधियाँ और उत्तेजनाएँ) है जो परमेश्वर की महिमा और सिद्धता से कम हो जाती है। हम सब पाप करते हैं। रोमियों 3:23 यह भी सिखाता है कि हमें परमेश्वर के चरित्र को जानना चाहिए, इससे पहले कि हम पाप को ठीक से परिभाषित करें, क्योंकि उसकी महिमा ही वह मापदण्ड है जिसके द्वारा हम इसे नापते हैं (भजन संहिता 119:160; यूहन्ना 17:17)। एक आदर्श मापदण्ड के बिना, यह निर्धारित करने का कोई तरीका नहीं है कि क्या कोई चीज त्रुटिपूर्ण है या नहीं। परमेश्‍वर की महिमा के पूर्ण मापदण्ड के बिना, प्रत्येक शब्द या कार्य दोषपूर्ण लोगों के खराब और बदलते रहने वाले मापदण्ड के द्वारा निर्धारित किए जाएंगे। प्रत्येक नियम, कानून और नैतिक सिद्धान्त मात्र सोच के विषय बन जाएंगे। और मनुष्य की सोच वातावरण की तरह भिन्न और परिवर्तनशील है।

यदि एक भवन निर्माता एक नींव पर निर्माण करता है जो वर्गाकार नहीं है, तो वह पूरे प्रोजेक्ट की निष्ठा को जोखिम में डालता है। भवन अच्छी रीति से निर्मित नहीं होता क्योंकि जैसे-जैसे यह ऊपर की ओर बढ़ता जाता है; यह कमजोर और अपनी संरचना से दूर होता चला जाता है। यद्यपि, जब आरम्भिक बिन्दु सही है, तब ही शेष संरचना सही होगी। नैतिक नींव भी इसी तरह से काम करती है। परमेश्वर के नैतिक नियमों के बिना, हमारे पास गलत से सही जानने का कोई तरीका नहीं है। पाप उससे दूर होना है जो सही होता है। परमेश्वर के नैतिक मापदण्ड से हम जितना दूर होते चले जाते हैं, पाप उतना ही बुरा होता चला जाता है।

परमेश्वर ने स्वतन्त्र इच्छा के साथ मनुष्य और स्वर्गदूतों को रचा था, और, यदि एक प्राणी के पास स्वतन्त्र इच्छा है, तो कम से कम उसके पास यह क्षमता है कि वह बुरे को चुन सकता है। परमेश्वर ने अपने स्वरूप में मनुष्यों को रचा, और, क्योंकि परमेश्वर के पास स्वतंत्र इच्छा है, इसलिए उसने मनुष्य को भी स्वतन्त्र इच्छा के साथ रचा है (उत्पत्ति 1:27)। स्वतन्त्र इच्छा में चुनने की क्षमता सम्मिलित होती है, और परमेश्वर के द्वारा नैतिक मापदण्ड को दे दिए जाने के पश्चात्, उसने मनुष्य को एक सच्चा चुनाव दिया (उत्पत्ति 2:16-17)। आदम ने अवज्ञा को चुना। परमेश्वर ने आदम को अवज्ञा के लिए परीक्षा में नहीं डाला, न ही कोई दबाव डाला या लालच दिया। याकूब 1:13 कहता है, “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे कि, ‘मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है’; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्‍वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” परमेश्‍वर ने आदम को गौरव के साथ स्वतन्त्र चुनाव करने की अनुमति दी और उचित परिणामों के साथ उस विकल्प को सम्मान दिया (रोमियों 5:12)।

परमेश्वर ने पाप करने का अवसर प्रदान किया, परन्तु उसने पाप को रचा या उकसाया नहीं। अवसर अच्छा था; इसके बिना, मनुष्य रोबोट की तुलना में थोड़ा ही अधिक होता। परमेश्‍वर आज्ञा देता है, हमसे विनती करता है और उसका अनुसरण करने के लिए हमें प्रोत्साहित करता है (निर्गमन 19:5; व्यवस्थाविवरण 12:28; 1 शमूएल 15:22)। जब हम उसकी आज्ञा पालन करते हैं, तो वह आशीष, संगति और सुरक्षा की प्रतिज्ञा करता है (यिर्मयाह 7:23; भजन संहिता 115:11; लूका 11:11)। परन्तु वह हमें जंजीर में नहीं बाँधता। अदन की वाटिका में परमेश्वर ने मना किए हुए वृक्ष के चारों ओर बाड़ नहीं लगाई थी। आदम और हव्वा को आज्ञाकारिता या अवज्ञा को चुनने की स्वतन्त्रता थी। जब उन्होंने पाप को चुना, तो उन्होंने इसके साथ ही आने वाले परिणामों को भी चुना (उत्पत्ति 3:16–24)।

तब से प्रत्येक मनुष्य के लिए यही सच है। पाप करने का अवसर हमारे द्वारा चुनाव करने की स्वतन्त्रता में निहित है। हम परमेश्वर की खोज करना चुन सकते हैं, जो धर्मी जीवन की ओर अगुवाई करता है (यिर्मयाह 29:13; 2 तीमुथियुस 2:19)। या हम अपने स्वयं के झुकावों का पालन करना चुन सकते हैं, जो हमें परमेश्वर से दूर ले जाते हैं (नीतिवचन 16:5)। बाइबल स्पष्ट करती है कि, हम जो भी मार्ग चुनते हैं, परिणाम उसका अनुसरण करते हैं। हम जो बोते हैं उसे काटते हैं (गलातियों 6:7)। कुछ परिणाम शाश्वतकालीन होते हैं। मत्ती 25:46 का कहना है कि जो लोग यीशु का अनुसरण नहीं करते हैं “वे अनन्त दण्ड भोगेंगे परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे।”

परमेश्वर लोगों (सभोपदेशक 12:14) और जातियों (मीका 5:15) का न्याय करता है जो उसकी स्वतन्त्र इच्छा का उपयोग उसके विरुद्ध विद्रोह करने के लिए करते हैं। परमेश्वर ने पाप नहीं किया और न ही उसने पाप को रचा है, न ही वह उन्हें दण्ड देने में प्रसन्न होता है जो पाप करने का चुनाव करते हैं। (यहेजकेल 33:11)। उसकी इच्छा यह है कि सभी पश्चाताप करें और उसके साथ अनन्त जीवन की आशीष और आनन्द का अनुभव करें (2 पतरस 3:9)।

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