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प्रश्न

कठिन लोगों से निपटने के बारे में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर


हम सभी ऐसे लोगों को जानते हैं, जिन्हें हम एक या दूसरे तरीके से "कठिन" पाते हैं, और हम सभों को जीवन के किसी बिन्दु पर कठिन लोगों से लेन देन करना पड़ता है। एक कठिन व्यक्ति वह हो सकता है, जो कृपाशील, तर्कशील, लड़ने वाला, स्वार्थी, चपल, ओछा, या असभ्य हो। कठिन लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि हमें कैसे क्रोधित करना है, हमें कैसे हतोत्साहित करना है, हमारी भावनाओं को कैसे ठेस पहुँचाना और हमारे लिए कैसे परेशानी को उत्पन्न करना है। कठिन लोगों से निपटना धैर्य, प्रेम और अनुग्रह में एक अभ्यास बन जाता है।

कठिन लोगों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया यीशु के द्वारा प्रदान किए गए उदाहरणों को अनुसरण करने में होनी चाहिए, क्योंकि उसने निश्चित रूप से पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में कई कठिन लोगों के साथ लेन देन किया है। कठिन लोगों के साथ उसके वार्तालाप में यीशु ने कभी भी कठोरता से भरे हुई श्रेष्ठता या इन्कार करने वाले अभिमान के व्यवहार को प्रगट नहीं किया; अपितु, उसने नियन्त्रण में रहने वाले अधिकार को दिखाया। वह आवश्यकता पड़ने पर ताड़ना देता था (यूहन्ना 8:47), परन्तु साथ ही शान्त रहते हुए कठिन लोगों के साथ लेन देने किया (यूहन्ना 6: 6), प्रश्न पूछते समय (मरकुस 11: 28-29), उसने उन्हें पवित्रशास्त्र की ओर संकेत करते हुए (मरकुस 10:2-3), और एक कहानी को बताते हुए लेन देन किया (लूका 7:40–42)।

पहाड़ी पर दिए हुए उपदेश में, यीशु प्रेम और विनम्रता में रहते हुए कठिन लोगों के साथ निपटारा करने के बारे में बहुत अधिक विशेषता को दिखाता है: "परन्तु मैं तुम सुननेवालों से कहता हूँ कि अपने शत्रुओं से प्रेम रखो; जो तुम से बैर करें, उनका भला करो। जो तुम्हें स्राप दें, उनको आशीष दो; जो तुम्हारा अपमान करें, उनके लिये प्रार्थना करो। जो तेरे एक गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर दूसरा भी फेर दे; और जो तेरी दोहर छीन ले, उसको कुरता लेने से भी न रोक। जो कोई तुझ से माँगे, उसे दे; और जो तेरी वस्तु छीन ले, उससे न माँग। जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो” (लूका 6:27–31)। पहला पतरस 3:9 कहता है, “बुराई के बदले बुराई मत करो और न गाली के बदले गाली दो; पर इसके विपरीत आशीष ही दो, क्योंकि तुम आशीष के वारिस होने के लिये बुलाए गए हो।"

कठिन लोगों से निपटारा करते समय हमें हमारे अपने घमण्ड के विरूद्ध पहरा देना चाहिए। प्रेरित पौलुस के द्वारा रोमियों 12:3 में दिए गए वचन को स्मरण रखना आवश्यक है: “क्योंकि मैं उस अनुग्रह के कारण जो मुझ को मिला है, तुम में से हर एक से कहता हूँ कि जैसा समझना चाहिए उससे बढ़कर कोई भी अपने आप को न समझे; पर जैसा परमेश्‍वर ने हर एक को विश्‍वास परिमाण के अनुसार बाँट दिया है, वैसा ही सुबुद्धि के साथ अपने को समझे” (फिलिप्पियों 2:3–4 को भी देखें)। इसलिए, जब हम जानते हैं कि हमें एक कठिन व्यक्ति से निपटना है, तो हमें नम्रता से उस स्थिति का सामना करना होगा। प्रेम भी कुँजी है: "अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखो" (गलातियों 5:14)। हम सभी को परमेश्वर का प्रेम दिखाना चाहते हैं - जिसमें कठिन लोग भी सम्मिलित हैं।

नीतिवचन की पुस्तक कठिन लोगों से निपटने के विषय में बहुत अधिक ज्ञान को प्रदान करती है। नीतिवचन 12:16 हमारे सम्बन्धों में धैर्य को बढ़ावा देता है: “मूढ़ की रिस उसी दिन प्रगट हो जाती है, परन्तु चतुर अपमान को छिपा रखता है।” नीतिवचन 20:3 मेल-को बनाए रखने का आदेश देता है: “मुक़द्दमे से हाथ उठाना, पुरुष की महिमा ठहरती है; परन्तु सब मूढ़ झगड़ने को तैयार होते हैं।” नीतिवचन 10:12 प्रेम को बढ़ावा देता है: “बैर से तो झगड़े उत्पन्न होते हैं, परन्तु प्रेम से सब अपराध ढँप जाते हैं।” नीतिवचन 17:14 स्वयं के बचाव और दूरदर्शिता के उपयोग को मूल्य देता है: “झगड़े का आरम्भ बाँध के छेद के समान है, झगड़ा बढ़ने से पहले उसको छोड़ देना उचित है।" यदि सम्भव हो तो ऐसी स्थिति में उन लोगों को चुनाव करते हुए जिनके साथ हम सम्बन्धित हैं, बचना चाहिए: “नम्रता और यहोवा के भय मानने का फल धन, महिमा और जीवन होता है”(नीतिवचन 22:24)।

कठिन लोगों से निपटना अनिवार्य है। जब हम कठिन लोगों से लेन देन करते हैं, तो शरीर में होकर उत्तर देना आसान होता है। परन्तु यह हम में ही अधिक बुराई को ले आता है। अपने लिए आत्मा के फल का उपयोग करते हुए कठिन लोगों के साथ अपने व्यवहार को अनुमति देना अत्याधिक उत्तम है (गलातियों 5:22–23)! परमेश्वर के अनुग्रह से, हम प्रेम, आनन्द, शान्ति, धैर्य, दया, भलाई, विश्वास, विश्वासयोग्यता, और नम्रता के साथ - और इन सबसे बढ़कर - आत्म-संयम का उपयोग करते हुए कठिन लोगों के साथ लेन देन कर सकते हैं। क्यों न हम उसी प्रेम, अनुग्रह और दया का विस्तार करें जिसे परमेश्वर ने हमारे लिए किया है। और क्या हम सावधान हो सकते हैं कि हम स्वयं "कठिन लोग" न बनें!

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