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प्रश्न

सांस्कृतिक सापेक्षवाद क्या है?

उत्तर


सांस्कृतिक सापेक्षवाद यह विचार है कि सभी मान्यताएँ, रीति-रिवाज और नैतिकता अपने स्वयं के सामाजिक सन्दर्भ में एक व्यक्ति के प्रति सापेक्ष या सम्बन्धित हैं। दूसरे शब्दों में, "सही" और "गलत" संस्कृति-विशेष हैं; जो एक समाज में नैतिक माना जाता है, वह दूसरे में अनैतिक माना जा सकता है, और क्योंकि नैतिकता का कोई सार्वभौमिक मापदण्ड अस्तित्व में नहीं है, इसलिए किसी के पास दूसरे समाज के रीति-रिवाजों की जाँच करने का कोई अधिकार नहीं है।

आधुनिक नृविज्ञान में सांस्कृतिक सापेक्षवाद व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। सांस्कृतिक सापेक्षवादियों का मानना है कि सभी संस्कृतियाँ अपने अधिकार में योग्य हैं और समान मूल्य की हैं। संस्कृतियों की विविधता, यहाँ तक कि विरोधाभासी नैतिक विश्‍वासों को, सही और गलत या अच्छे और बुरे शब्दों के सन्दर्भ में नहीं माना जा सकता है। आज के मानवविज्ञानी मानते हैं कि सभी संस्कृतियाँ मानव अस्तित्व की समान रूप से वैध अभिव्यक्ति होनी चाहिए, जिनका पूरी तरह से तटस्थ दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाना चाहिए।

सांस्कृतिक सापेक्षवाद नैतिक सापेक्षतावाद के साथ बहुत अधिक निकटता से सम्बन्धित है, जो सत्य को पूर्ण नहीं अपितु पुष्टि किए जाने के रूप में देखता है। जो बात सही और गलत को निर्मित करती है, उसे केवल व्यक्ति या समाज के द्वारा ही निर्धारित किया जाता है। क्योंकि सत्य वस्तुनिष्ठक अर्थात् उद्देश्यपरक नहीं है, इसलिए कोई भी वस्तुनिष्ठक मापदण्ड नहीं हो सकता, जो कि सभी संस्कृतियों के ऊपर लागू हो जाए। कोई नहीं कह सकता है कि एक व्यक्ति सही है या गलत है; यह व्यक्तिगत विचार की विषय-वस्तु है, और कोई समाज दूसरे समाज के ऊपर दोष नहीं लगा सकता है।

सांस्कृतिक सापेक्षवाद किसी भी तरह से स्वयं में निहित सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के साथ कुछ भी गलत के रूप (और स्वाभाविक रूप से कुछ भी अच्छा) नहीं देखता है। इसलिए स्वयं के अंगभंग करने की और मानव बलिदान की प्राचीन मान्य प्रथाएँ न तो अच्छी हैं और न ही बुरी हैं; वे केवल सांस्कृतिक विशेषता हैं, जो कि जुलाई चार को अमेरिका में होने वाली आतिशबाजी के लिए पटाखों को छोड़ने जैसी प्रथा के समान हैं। मानव बलि और आतिशबाजी — दोनों ही भिन्न सामाजीकरण के पृथक उत्पाद हैं।

जनवरी 2002 में, जब राष्ट्रपति बुश ने "बुराई की धुरी" के रूप में आतंकवादी राष्ट्रों को सन्दर्भित किया, तब सांस्कृतिक सापेक्षवादी को अपमानित किया गया था। यह कि किसी भी समाज के द्वारा किसी अन्य समाज को "बुरा" कहना ही एक सापेक्षवादी के लिए अभिशाप है। वर्तमान आन्दोलन को कट्टरपन्थी इस्लाम — से लड़ने की अपेक्षा इसे "समझना" — एक संकेत है कि सापेक्षवाद आगे की ओर वृद्धि कर रहा है। सांस्कृतिक सापेक्षवादी का मानना है कि पश्चिमी देशों को इस्लामिक संसार के ऊपर अपने विचारों को नहीं थोपना चाहिए, जिसमें नागरिकों के द्वारा आत्मघाती बमबारी को बुराई के रूप में सम्मिलित किया गया है। इस्लामी विश्‍वास जिहाद की अनिवार्यता उतनी ही वैध है, जितनी की पश्चिमी सभ्यता में किया जाने वाला एक विश्‍वास मान्य है, इसे ही सापेक्षवादी मानते हैं और 9/11 के आक्रमण के लिए अमेरिका उतना ही उत्तरदायी है, जितना कि आतंकवादी हैं।

सांस्कृतिक सापेक्षवादी सामान्य रूप से मिशनरियों के कार्यों का विरोध करते हैं। जबकि सुसमाचार मनों में प्रवेश करता है और जीवन में परिवर्तन लाता है, परिणामस्वरूप कुछ सांस्कृतिक में सदैव के लिए परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए, जब डॉन और कैरल रिचर्डसन ने 1962 में नीदरलैंड्स न्यू गिनिया की सावी जनजाति में सुसमाचार प्रचार किया, तो सावी वासियों का परिवर्तन हुआ: विशेष रूप से, उन्होंने नरभक्षण के अपने लम्बे समय से चल रही प्रथा और विधवाओं को उनके पति के अन्तिम संस्कार के समय बलिदान अर्थात् सती प्रथा को छोड़ दिया। सांस्कृतिक सापेक्षवाद, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के लिए रिचर्डसन के ऊपर आरोप लगा सकते हैं, परन्तु अधिकांश संसार इस बात से सहमत होगा कि नरभक्षण समाप्त होना एक अच्छी बात है। (सावी वासियों के रूपान्तरण की पूरी कहानी के साथ-साथ सांस्कृतिक सुधारों की एक व्याख्या के रूप में, डॉन रिचर्डसन की पुस्तक पीस चाईल्ड अर्थात् शान्ति का पुत्र देखें, यह मिशन से सम्बन्धित पुस्तक है।)

मसीही विश्‍वासी होने के नाते, हम सभी लोगों की, संस्कृति की चिन्ता किए बिना, क्योंकि यह जानते हैं कि सभी लोगों को परमेश्‍वर के स्वरूप में रचा गया है (उत्पत्ति 1:27)। हम यह भी पहचानते हैं कि संस्कृति की विविधता एक सुन्दर बात है और भोजन, कपड़े, भाषा इत्यादि में भिन्नता को संरक्षित किया जाना चाहिए और इसकी सराहना की जानी चाहिए। साथ ही, हम यह भी जानते हैं कि पाप के कारण, एक संस्कृति के भीतर सभी विश्‍वास और प्रथाएँ चाहे वे धार्मिक हैं या सांस्कृतिक, सभी लाभदायक नहीं होती है। सत्य आत्मनिष्ठक अर्थात् व्यक्तिपरक् नहीं है (यूहन्ना 17:17); सत्य पूर्ण है, और एक नैतिक मापदण्ड विद्यमान है। जिसके प्रति प्रत्येक संस्कृति के सभी लोग उत्तरदायी ठहराए जाएँगे (प्रकाशितवाक्य 20:11-12)।

मिशनरी होने के नाते हमारा लक्ष्य संसार का पश्चिमीकरण करना नहीं है। अपितु, यह संसार में मसीह के उद्धार के सुसमाचार को लाने का है। सुसमाचार का सन्देश उस सीमा तक समाज सुधार को बढ़ावा देगा, जिससे किसी भी समाज की प्रथाएँ — उदाहरण के लिए जैसे मूर्तिपूजा, बहुविवाहप्रथा, गुलाम प्रथा इत्यादि, जो परमेश्‍वर के नैतिक स्तर के विरूद्ध हैं, परिवर्तित हो जाएँगी, जब परमेश्‍वर का वचन प्रबलता को प्राप्त करेगा (प्रेरितों के काम 19 को देखें)। अनैतिक विषयों को ध्यान में रखते हुए मिशनरियों ने लोगों की संस्कृति को संरक्षित और सम्मानित करने की कोशिश की है, जिसमें वे सेवा करते हैं।

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