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प्रश्न

मेरा सम्बन्ध परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठता के साथ कैसे हो सकता है?

उत्तर


परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित करना एक सराहनीय लक्ष्य है और एक ऐसे मन को दर्शाता है, जिसका वास्तव में दूसरा जन्म हुआ है, क्योंकि केवल जो लोग मसीह में हैं, वही केवल परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध को चाहते हैं। हमें यह भी समझना चाहिए कि इस जीवन में हम कभी भी परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठ नहीं होंगे, जैसा कि हमें होना चाहिए या जैसे की हम भी इच्छा रखते हैं। इसका कारण हमारे जीवन में स्थाई पाप का होना है। यह परमेश्‍वर की ओर से की गई कमी नहीं, अपितु हमारी स्वयं की ओर से है; हमारे पाप परमेश्‍वर के साथ पूर्ण और सदैव की सहभागिता के प्रति एक बाधा है, जो हमें तब साकार होगी जब हम परमेश्‍वर की महिमा में पहुँचेंगे।

यहाँ तक कि प्रेरित पौलुस भी, जिसका परमेश्‍वर के साथ उस व्यक्ति की तरह सबसे अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध था, जैसा कदाचित् किसी के पास इस जीवन में होना चाहिए, तौभी भी घनिष्ठ सम्बन्ध की प्राप्ति की चाहत कर रहा था। "वरन् मैं अपने प्रभु मसीह यीशु की पहिचान की उत्तमता के कारण सब बातों को हानि समझता हूँ। जिस के कारण मैं ने सब वस्तुओं की हानि उठाई, और उन्हें कूड़ा समझता हूँ, जिससे मैं मसीह को प्राप्त करूँ। और उस में पाया जाऊँ; न कि अपनी उस धार्मिकता के साथ, जो व्यवस्था से है, वरन् उस धार्मिकता के साथ जो मसीह पर विश्‍वास करने के कारण है और परमेश्‍वर की ओर से विश्‍वास करने पर मिलती है" (फिलिप्पियों 3:8-9)। यह बात कोई अर्थ नहीं रखती है कि हम मसीही जीवन में मसीह के साथ किस स्थान पर हैं, हमारे पास सदैव उसके साथ घनिष्ठता का जीवन हो सकता है, यहाँ तक कि स्वर्ग में महिमा पाए हुए, हम सभी प्रभु के साथ हमारे सम्बन्ध में पूरे शाश्‍वतकाल के जीवन में वृद्धि करते रहेंगे।

पाँच ऐसी मूलभूत बातें हैं, जिन्हें हम परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठता के सम्बन्ध की प्राप्ति के लिए कर सकते हैं।

परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठता के सम्बन्ध की प्राप्ति के लिए पहली बात हम यह कर सकते हैं कि हम हमारे पापों को उसके सामने प्रतिदिन अंगीकार करने की आदत को डालें। यदि हमारे पाप परमेश्‍वर के साथ हमारे सम्बन्धों में एक रूकावट है, तो हमें इन रूकावटों को दूर करने के लिए इन्हें अंगीकार करना चाहिए। यदि हम अपने पापों को परमेश्‍वर के सामने अंगीकार करें, तो इन्हें क्षमा कर देने की प्रतिज्ञा उसने हमसे की है (1 यूहन्ना 1:9), और क्षमा ही वह बात है, जो हमारे बाधित सम्बन्ध को पुनर्स्थापित कर देता है। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि अंगीकार "हे परमेश्‍वर, मैं अपने पापों के लिए खेदित हूँ" कहने से कहीं अधिक होता है। यह उन लोगों का मन से पश्चाताप है, जो यह स्वीकार करते हैं कि उनका पाप पवित्र परमेश्‍वर के विरूद्ध किया हुआ एक अपराध है। यह उस व्यक्ति का अंगीकार है, जो यह पहचान लेता है कि उसके पाप ही हैं, जिसके कारण क्रूस के ऊपर यीशु मसीह को क्रूसित किया गया था। यह लूका 18 में सार्वजनिक रूप से की हुई याचना थी, जिसमें कहा गया था कि, "हे परमेश्‍वर, मुझ पापी पर दया कर!" जैसा कि दाऊद ने लिखा है, "टूटा मन परमेश्‍वर के योग्य बलिदान है, हे परमेश्‍वर, तू टूटे और पिसे हुए मन को तुच्छ नहीं जानता" (भजन संहिता 51:17)।

दूसरी बात जिसे हम परमेश्‍वर के साथ अपने सम्बन्ध को घनिष्ठ करने के लिए कर सकते हैं, वह उस समय उसकी आवाज को सुनना है जब वह बोल रहा होता है। आज बहुत से लोग परमेश्‍वर की आवाज़ सुनने के लिए अलौकिक अनुभव की प्राप्ति का पीछा करते हैं, लेकिन प्रेरित पतरस हमें बताता है कि "हमारे पास जो भविष्यद्वक्ताओं का वचन है, वह इस घटना से दृढ़ ठहरा है। तुम यह अच्छा करते हो जो यह समझकर उस पर ध्यान करते हो कि वह एक दीया है, जो अन्धियारे स्थान में उस समय तक प्रकाश देता रहता है जब तक कि पौ न फटे, और भोर का तारा तुम्हारे हृदयों में न चमक उठे" (1 पतरस 1:19)। यह "भविष्यद्वक्ताओं का सुनिश्चित वचन" बाइबल है। बाइबल में से, हम हमारे तक आने वाली परमेश्‍वर की आवाज को "सुनते" हैं। यह पवित्रशास्त्र के "परमेश्‍वर-प्रेरित" होने के द्वारा सम्भव है कि हम "हर एक भले काम के लिए तत्पर" हो जाने के लिए प्रशिक्षित किए जाते हैं (2 तीमुथियुस 3:16-17)। इस कारण, यदि हम परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठता में वृद्धि करना चाहते हैं, तो हमें उसके वचन का पठ्न नियमित रूप से करना चाहिए। उसके वचन के पठ्न के द्वारा, हम परमेश्‍वर के वचन को हम से बोलते हुए "सुनते" हैं, जिसकी प्रदीप्ति वह हम तक उसके आत्मा के द्वारा करता है।

दूसरी बात जिसे हम परमेश्‍वर के साथ अपने सम्बन्ध को घनिष्ठ करने के लिए कर सकते हैं, यह उससे प्रार्थना के द्वारा बात करना है। यदि बाइबल का पठ्न करना परमेश्‍वर की आवाज को अपने लिए सुनना है, तो परमेश्‍वर से बात करना प्रार्थना के द्वारा किया जाता है। चारों सुसमाचार अक्सर लिपिबद्ध करते हैं कि यीशु स्वयं को प्रार्थना में पिता के साथ समय बीताने के लिए अन्यों से पृथक कर लेता था। प्रार्थना उन बातों को जिनकी हमें आवश्यकता या चाहत है, को परमेश्‍वर से माँगने से कहीं अधिक बढ़कर बात है। आदर्शमयी प्रार्थना के ऊपर ध्यान दें, जिसे यीशु ने मत्ती 6:9-13 में यीशु ने उसके शिष्यों को दिया। इस प्रार्थना की पहली तीन विनतियाँ परमेश्‍वर की ओर निर्देशित हैं (तेरा नाम पवित्र माना जाए, तेरा राज्य आए और तेरी इच्छा पूरी हो)। अन्तिम तीन विनतियाँ (हमारे प्रतिदिन की रोटी आज हमें दे, हमारे पापों को क्षमा कर और हमें परीक्षा में न ला) वे याचनाएँ हैं, जिन्हें हम परमेश्‍वर से तब करते हैं, जब हमने पहले तीन विनतियों की चिन्ता कर ली है। अपने प्रार्थना के जीवन को जागृति करने के लिए एक अन्य कार्य भजन संहिता को अपने पठ्न में सम्मिलित कर सकते हैं। अधिकांश भजन संहिता विभिन्न बातों के लिए परमेश्‍वर की ओर मन से निकली हुई पुकारें हैं। भजन संहिता में हम दिव्य रूप से प्रेरित तरीके से तैयार किए गए आराधना, पश्चाताप, धन्यवाद और विनतियों को देखते हैं।

चौथी बात जिसे हम परमेश्‍वर के साथ अपने सम्बन्ध को घनिष्ठ करने के लिए कर सकते हैं, वह विश्‍वासियों की एक देह को खोजना है, जिसके साथ मिलकर हम नियमित रूप से आराधना कर सकें। यह आत्मिक वृद्धि का एक महत्वपूर्ण तत्व है। अक्सर, हम कलीसिया के पास इस धारणा के साथ पहुँचते हैं कि "मैं इससे क्या प्राप्त कर सकता हूँ?" हम कदाचित् ही आराधना के लिए अपने मनों और हृदयों की तैयारी के साथ समय निकाल कर आते हैं। एक बार फिर से, भजन संहिता हमें उसके लोगों को उसके पास आने और प्रभु की आराधना करने के लिए परमेश्‍वर की ओर दी हुई कई बुलाहटों को दिखाता है (उदाहरण के लिए, भजन संहिता 95:1-2)। परमेश्‍वर हमें आराधना के लिए उसकी उपस्थिति में आने के लिए आमन्त्रित करता है, हमें आज्ञा देता है। उसके लोग होने के नाते हम अपने प्रतिउत्तर को देने में कैसे असफल हो सकते हैं? न केवल कलीसिया में नियमित रूप से भाग लेना हमें प्रभु परमेश्‍वर के सामने आराधना में आने के लिए एक अवसर को प्रदान करता है, अपितु साथ ही यह हमें परमेश्‍वर के लोगों के साथ संगति करने का अवसर भी प्रदान करता है। जब हम प्रभु के भवन में उसके लोगों के साथ आराधना और संगति के लिए आते हैं, हम इसके परिणामस्वरूप परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठता में आने को छोड़कर और कुछ नहीं कर सकते हैं।

अन्त में, परमेश्‍वर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध को आज्ञाकारिता से भरे हुए जीवन के निर्मित किया जा सकता है। यीशु ने उसके शिष्यों को उपरौठी कोठी में ऐसे कहा था, "यदि तुम मुझे प्रेम करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का मानोगे" (यूहन्ना 14:23)। याकूब हमें कहता है कि जब हम स्वयं को आज्ञाकारिता, दुष्ट का सामना करने और परमेश्‍वर के निकट आने के द्वारा कर देते हैं, तो वह भी हमारे निकट आ जाता है (याकूब 4:7-8)। पौलुस हमें रोमियों में कहता है कि हमारी आज्ञाकारिता हमारे परमेश्‍वर के निमित्ति धन्यवाद स्वरूप "जीवित बलिदान" बन जाना चाहिए (रोमियों 12:1)। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि आज्ञाकारिता के प्रति दिए हुए सभी बाइबल आधारित उपदेशों को परमेश्‍वर के उस अनुग्रह के प्रति उत्तर के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, जिसे हमने उद्धार में प्राप्त किया है। हम उद्धार को हमारी आज्ञाकारिता के द्वारा नहीं कमाते; इसकी अपेक्षा, यह वह तरीका है, जो हमें परमेश्‍वर के प्रति कृतज्ञता और प्रेम के मार्ग को दिखाता है।

इस तरह से, अंगीकार, बाइबल अध्ययन, प्रार्थना, नियमित रूप से कलीसिया की आराधना में भाग लेना और आज्ञाकारिता के द्वारा, हम परमेश्‍वर के साथ एक घनिष्ट सम्बन्ध को स्थापित कर सकते हैं। यह सरल प्रतीत नहीं होता है, यद्यपि यह अपेक्षाकृत सरल है। परन्तु इस पर विचार करें: हम अन्य मनुष्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध कैसे विकसित करते हैं? हम उनके साथ वार्तालाव में समय बिताते हैं, अपने हृदय को उनके साथ खोल देते हैं और उसी समय उनकी भी सुनते हैं। जब हम गलती कर चुके होते हैं, तो हम इसे स्वीकार करते हैं और क्षमा माँगते हैं। हम उनसे स्वयं के प्रति अच्छी तरह से व्यवहार किए जाने की इच्छा रखते हैं और उनकी स्वयं की आवश्यकताओं को बलिदान करते हुए उनको पूरा करने का प्रयास करते हैं। यह हमारे स्वर्गीय पिता के साथ हमारे सम्बन्ध से भिन्न नहीं है।

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