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प्रश्न

अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल के बारे में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर


बाइबल में बुजुर्ग माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल करने के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है, जो स्वयं की देखभाल नहीं कर सकते हैं। आरम्भिक मसीही कलीसिया ने अन्य विश्‍वासियों के लिए सामाजिक सेवा के लिए एक सँस्था के रूप में कार्य किया था। वे निर्धनों, बीमारों, विधवाओं और अनाथों की देखभाल किया करते थे, जिनकी देखभाल करने के लिए उनके पास कोई और नहीं था। ऐसे मसीही परिवार जिनके सदस्यों की आवश्यकताएँ होती थीं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति अन्यों के द्वारा पूरे किए जाने की अपेक्षा की जाती थी। दुर्भाग्य से, हमारे माता-पिता की बुजुर्ग आयु में देखभाल करना अब एक दायित्व के रूप में नहीं रह गया है, जिसे हम में से बहुत से लोग स्वीकार करने की इच्छा करेंगे।

बुजुर्गों को आशीषों की अपेक्षा बोझ के रूप में देखा जा सकता है। कभी-कभी, जब हमारे माता-पिता को स्वयं की देखभाल के लिए आवश्यकता होती है, तब हम उनके बलिदानों को शीघ्रता से भूल जाते हैं, जो उन्होंने हमारे लिए किए थे। उन्हें अपने घरों में — जब कभी भी सुरक्षित और व्यवहार्य हो — लाने की अपेक्षा हम उन्हें सेवानिवृत्त समुदायों या नर्सिंग घरों में रहने के लिए दे देते हैं, कभी-कभी तो उनकी इच्छा के विरुद्ध ऐसा करते हैं। हम उनके द्वारा लम्बे समय तक जीवन यापन करने के द्वारा अर्जित ज्ञान के मूल्य को न समझें, और हम उनके परामर्श को भी "अद्यतन रहित" अर्थात् आज के युग के अनुरूप नहीं है, कह कर स्वीकार करने से इन्कार कर सकते हैं।

जब हम हमारे अभिभावकों को सम्मान देते हैं और उनकी देखभाल करते हैं, तब हम परमेश्‍वर की भी सेवा करते हैं। बाइबल कहती है कि, "उन विधवाओं का, जो सचमुच विधवा हैं, आदर कर। यदि किसी विधवा के बच्चे या नाती-पोते हों, तो वे पहले अपने ही घराने के साथ भक्ति का बर्ताव करना, और अपने माता- पिता आदि को उन का हक्क देना सीखें, क्योंकि यह परमेश्‍वर को भाता है...पर यदि कोई अपनों की और निज करके अपने घराने की चिन्ता न करे, तो वह विश्‍वास से मुकर गया है और अविश्‍वासी से भी बुरा बन गया है" (1 तीमुथियुस 5:3-4, 8)।

सभी बुजुर्ग लोगों को अपने बच्चों के घरों में निरन्तर, सजीव-देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है। हो सकता है कि वे अपनी ही आयु के अन्य लोगों के साथ समुदाय में रहना पसन्द करें, या वे पूरी स्वतन्त्रता के साथ आत्मनिर्भर होकर जीवन यापन करने में सक्षम हो। चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों, हमारे माता-पिता के प्रति हमारा दायित्व अभी भी बना ही रहता है। यदि उन्हें वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती है, तो हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। यदि वे बीमार हैं, तो हमें उनकी देखभाल करनी चाहिए। यदि उन्हें रहने के लिए स्थान की आवश्यकता है, तो हमें अपने घर में उन्हें रहने के लिए प्रस्ताव देना चाहिए। यदि उन्हें घर और/या बगीचे में कार्य करते हुए सहायता की आवश्यकता है, तो हमें उनकी सहायता करने के लिए कदमों को उठाना चाहिए। और यदि वे किसी नर्सिंग घर से देखभाल की सुविधा को प्राप्त कर रहे हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे अभिभावक की देखभाल उचित रीति से और प्रेम में होकर की जा रही है।

हमें संसार की उन बातों की चिन्ताओं की छाया भी उनके ऊपर नहीं पड़ने देनी चाहिए, जो उनके लिए अति महत्वपूर्ण हैं — परमेश्‍वर की सेवा लोगों की सेवा के द्वारा विशेषरूप से हमारे अपने परिवारों के लोगों के द्वारा होती है। बाइबल कहती है कि, "अपनी माता और पिता का आदर कर" — यह पहली आज्ञा है, जिस के साथ प्रतिज्ञा भी है — "कि तेरा भला हो, और तू धरती पर बहुत दिन जीवित रहे" (इफिसियों 6:2-3)।

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